ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
संध्या की तपस्या, उसके द्वारा भगवान् शिव की स्तुति तथा उससे संतुष्ट हुए शिव का उसे अभीष्ट वर दे मेधातिथि के यज्ञ में भेजना
ब्रह्माजी कहते हैं- मेरे पुत्रों में श्रेष्ठ महाप्राज्ञ नारद! तपस्या के नियम का उपदेश दे जब वसिष्ठजी अपने घर चले गये, तब तप के उस विधान को समझकर संध्या मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई। फिर तो वह सानन्द मन से तपस्विनी के योग्य वेष बनाकर वृहल्लोहित सरोवर के तटपर ही तपस्या करने लगी। वसिष्ठजी ने तपस्या के लिये जिस मन्त्र को साधन बताया था, उसी से उत्तम भक्तिभाव के साथ वह भगवान् शंकर की आराधना करने लगी। उसने भगवान् शिव में अपने चित्त को लगा दिया और एकाग्र मनसे वह बड़ी भारी तपस्या करने लगी। उस तपस्या में लगे हुए उसके चार युग व्यतीत हो गये। तब भगवान् शिव उसकी तपस्या से संतुष्ट हो बड़े प्रसन्न हुए तथा बाहर-भीतर और आकाश में अपने स्वरूप का दर्शन कराकर जिस रूप का वह चिन्तन करती थी, उसी रूपसे उस की आँखों के सामने प्रकट हो गये। उसने मन से जिनका चिन्तन किया था, उन्हीं प्रभु शंकर को अपने सामने खड़ा देख वह अत्यन्त आनन्द में निमग्न हो गयी। भगवान् का मुखारविन्द बड़ा प्रसन्न दिखायी देता था। उनके स्वरूप से शान्ति बरस रही थी। वह सहसा भयभीत हो सोचने लगी कि 'मैं भगवान् हर से क्या कहूँ? किस तरह इनकी स्तुति करूँ?' इसी चिन्ता में पड़कर उसने अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये। नेत्र बंद कर लेने पर भगवान् शिव ने उसके हृदय में प्रवेश करके उसे दिव्य ज्ञान दिया, दिव्य वाणी और दिव्य दृष्टि प्रदान की। जब उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि और दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी, तब वह कठिनाई से ज्ञात होनेवाले जगदीश्वर शिव को प्रत्यक्ष देखकर उनकी स्तुति करने लगी।
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