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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

महात्मा वसिष्ठ की यह बात सुनकर संध्या ने उन महात्मा की ओर देखा। वे अपने तेज से प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो ब्रह्मचर्य देह धारण करके आ गया हो। वे मस्तक पर जटा धारण किये बड़ी शोभा पा रहे थे। संध्या ने उन तपोधन को आदरपूर्वक प्रणाम करके कहा-

संध्या बोली- ब्रह्मन्! मैं ब्रह्माजी की पुत्री हूँ। मेरा नाम संध्या है और मैं तपस्या करने के लिये इस निर्जन पर्वत पर आयी हूँ। यदि मुझे उपदेश देना आपको उचित जान पड़े तो आप मुझे तपस्या की विधि बताइये। मैं यही करना चाहती हूँ। दूसरी कोई भी गोपनीय बात नहीं है। मैं तपस्या के भाव को- उसके करने के नियम को बिना जाने ही तपोवन में आ गयी हूँ। इसलिये चिन्ता से सूखी जा रही हूँ और मेरा हृदय काँपता है। संध्या की बात सुनकर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ वसिष्ठजीने, जो स्वयं सारे कार्यों के ज्ञाता थे, उससे दूसरी कोई बात नहीं पूछी। वह मन-ही-मन तपस्या का निश्चय कर चुकी थी और उसके लिये अत्यन्त उद्यमशील थी। उस समय वसिष्ठ ने मन से भक्तवत्सल भगवान् शंकर का स्मरण करके इस प्रकार कहा।

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