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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

 

अध्याय १३ 

पार्वती और शिव का दार्शनिक संवाद, शिव का पार्वती को अपनी सेवा के लिये आज्ञा देना तथा पार्वती द्वारा भगवान् की प्रतिदिन सेवा

भवानी ने कहा- योगिन्! आपने तपस्वी होकर गिरिराज से यह क्या बात कह डाली? प्रभो! आप ज्ञानविशारद हैं, तो भी अपनी बातका उत्तर मुझसे सुनिये। शम्भो! आप तप:शक्तिसे सम्पन्न होकर ही बड़ा भारी तप करते हैं। उस शक्तिके कारण ही आप महात्माको तपस्या करनेका विचार हुआ है। सभी कर्मों को करने की जो वह शक्ति है उसे ही प्रकृति जानना चाहिये। प्रकृति से ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार होते हैं। भगवन्! आप कौन हैं? और सूक्ष्म प्रकृति क्या है? इसका विचार कीजिये। प्रकृति के बिना लिंगरूपी महेश्वर कैसे हो सकते हैं? आप सदा प्राणियोंके लिये जो अर्चनीय, वन्दनीय और चिन्तनीय हैं वह प्रकृति के ही कारण हैं। इस बातको हृदयसे विचारकर ही आपको जो कहना हो, वह सब कहिये।

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! पार्वतीजी के इस वचनको सुनकर महती लीला करनेमें लगे हुए प्रसन्नचित्त महेश्वर हँसते हुए बोले।

महेश्वर ने कहा- मैं उत्कृष्ट तपस्या द्वारा ही प्रकृतिका नाश करता हूँ और तत्त्वतः प्रकृतिरहित शम्भु के रूप में स्थित होता हूँ। अत: सत्पुरुषों को कभी या कहीं प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिये। लोकाचार से दूर एवं निर्विकार रहना चाहिये।

नारद! जब शम्भु ने लौकिक व्यवहार के अनुसार यह बात कही, तब काली मन-ही-मन हँसकर मधुर वाणी में बोलीं।

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