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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

काली ने कहा- कल्याणकारी प्रभो! योगिन्। आपने जो बात कही है क्या वह वाणी प्रकृति नहीं है? फिर आप उससे परे क्यों नहीं हो गये? (क्यों प्रकृति का सहारा लेकर बोलने लगे?) इन सब बातों को विचार करके तात्त्विक दृष्टि से जो यथार्थ बात हो, उसी को कहना चाहिये। यह सब कुछ सदा प्रकृति से बँधा हुआ है। इसलिये आपको न तो बोलना चाहिये और न कुछ करना ही चाहिये; क्योंकि कहना और करना - सब व्यवहार प्राकृत ही है। आप अपनी बुद्धि से इसको समझिये। आप जो कुछ सुनते, खाते, देखते और करते हैं वह सब प्रकृति का ही कार्य है। झूठे बाद-विवाद करना व्यर्थ है। प्रभो! शम्भो! यदि आप प्रकृति से परे हैं तो इस समय इस हिमवान् पर्वत पर आप तपस्या किसलिये करते हैं? हर! प्रकृति ने आपको निगल लिया है। अत: आप अपने स्वरूप को नहीं जानते। ईश! आप यदि अपने स्वरूप को जानते हैं तो किसलिये तप करते हैं? योगिन्! मुझे आपके साथ वाद-विवाद करने की क्या आवश्यकता है? प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध होने पर विद्वान् पुरुष अनुमान प्रमाण को नहीं मानते। जो कुछ प्राणियों की इन्द्रियों का विषय होता है वह सब ज्ञानी पुरुषों को बुद्धि से विचारकर प्राकृत ही मानना चाहिये। योगीश्वर! बहुत कहने से क्या लाभ? मेरी उत्तम बात सुनिये। मैं प्रकृति हूँ। आप पुरुष हैं। यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है। मेरे अनुग्रह से ही आप सगुण और साकार माने गये हैं। मेरे बिना तो आप निरीह हैं। कुछ भी नहीं कर सकते हैं। आप जितेन्द्रिय होने पर भी प्रकृति के अधीन हो सदा नाना प्रकार के कर्म करते रहते हैं। फिर निर्विकार कैसे हैं? और मुझसे लिप्त कैसे नहीं? शंकर! यदि आप प्रकृति से परे हैं और यदि आपका यह कथन सत्य है तो आपको मेरे समीप रहने पर भी डरना नहीं चाहिये।

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