ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
वे जो सदाशिव हैं उन्हें परमपुरुष, ईश्वर, शिव, शम्भु और महेश्वर कहते हैं। वे अपने मस्तक पर आकाश-गंगा को धारण करते हैं। उनके भालदेश में चन्द्रमा शोभा पाते हैं। उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र हैं। उनका चित्त सदा प्रसन्न रहता है। वे दस भुजाओं से युक्त और त्रिशूलधारी हैं। उनके श्रीअंगों की प्रभा कर्पूर के समान श्वेत-गौर है। वे अपने सारे अंगों में भस्म रमाये रहते हैं। उन कालरूपी ब्रह्म ने एक ही समय शक्ति के नाथ 'शिवलोक' नामक क्षेत्र का निर्माण किया था। उस उत्तम क्षेत्र को ही काशी कहते हैं। वह परम निर्वाण या मोक्ष का स्थान है जो सबके ऊपर विराजमान है। वे प्रिया-प्रियतमरूप शक्ति और शिव, जो परमानन्दस्वरूप हैं उस मनोरम क्षेत्र में नित्य निवास करते हैं। काशीपुरी परमानन्दरूपिणी है। मुने! शिव और शिवा ने प्रलय काल में भी कभी उस क्षेत्र को अपने सांनिध्य से मुक्त नहीं किया है। इसलिये विद्वान् पुरुष उसे 'अविमुक्त क्षेत्र' के नाम से भी जानते हैं। वह क्षेत्र आनन्द का हेतु है। इसलिये पिनाकधारी शिव ने पहले उसका नाम 'आनन्दवन' रखा था। उसके बाद वह 'अविमुक्त' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
देवर्षे! एक समय उस आनन्दवन में रमण करते हुए शिवा और शिव के मन में यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुष की भी सृष्टि करनी चाहिये, जिसपर यह सृष्टि-संचालन का महान् भार रखकर हम दोनों केवल काशी में रहकर इच्छानुसार विचरें और निर्वाण धारण करें। वही पुरुष हमारे अनुग्रह से सदा सबकी सृष्टि करे, पालन करे और वही अन्त में सबका संहार भी करे। यह चित्त एक समुद्र के समान है। इस में चिन्ता की उत्ताल तरंगें उठ-उठकर इसे चंचल बनाये रहती हैं। इस में सत्त्वगुणरूपी रत्न, तमो-गुणरूपी ग्राह और रजोगुणरूपी मूँगे भरे हुए हैं। इस विशाल चित्त-समुद्र को संकुचित करके हम दोनों उस पुरुष के प्रसाद से आनन्द कानन (काशी) में सुख-पूर्वक निवास करें। यह आनन्दवन वह स्थान है जहाँ हमारी मनोवृत्ति सब ओर से सिमिटकर इसी में लगी हुई है तथा जिसके बाहर का जगत् चिन्ता से आतुर प्रतीत होता है। ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिव ने अपने वामभाग के दसवें अंगपर अमृत मल दिया। फिर तो वहाँ से एक पुरुष प्रकट हुआ, जो तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दर था। वह शान्त था। उसमें सत्त्वगुण की अधिकता थी तथा वह गम्भीरता का अथाह सागर था।
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