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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

मुने! क्षमा नामक गुण से युक्त उस पुरुष के लिये ढूँढ़नेपर भी कहीं कोई उपमा नहीं मिलती थी। उसकी कान्ति इन्द्रनीलमणि के समान श्याम थी। उसके अंग-अंग से दिव्य शोभा छिटक रही थी और नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान शोभा पा रहे थे। श्रीअगों पर सुवर्ण की-सी कान्तिवाले दो सुन्दर रेशमी पीताम्बर शोभा दे रहे थे। किसी से भी पराजित न होनेवाला वह वीर पुरुष अपने प्रचण्ड भुजदण्डों से सुशोभित हो रहा था। तदनन्तर उस पुरुष ने परमेश्वर शिव को प्रणाम करके कहा-'स्वामिन्! मेरे नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये। उस पुरुष की यह बात सुनकर महेश्वर भगवान् शंकर हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में उससे बोले-

शिव ने कहा- व्यापक होने के कारण तुम्हारा विष्णु नाम विख्यात हुआ। इसके सिवा और भी बहुत-से नाम होंगे, जो भक्तों को सुख देनेवाले होंगे। तुम सुस्थिर उत्तम तप करो; क्योंकि वही समस्त कार्यों का साधन है।

ऐसा कहकर भगवान् शिव ने श्वास-मार्ग से श्रीविष्णु को वेदों का ज्ञान प्रदान किया। तदनन्तर अपनी महिमा से कभी स्मृत न होनेवाले श्रीहरि भगवान् शिव को प्रणाम करके बड़ी भारी तपस्या करने लगे और शक्तिसहित परमेश्वर शिव भी पार्षदगणों के साथ वहाँ से अदृश्य हो गये। भगवान् विष्णु ने सुदीर्घ कालतक बड़ी कठोर तपस्या की। तपस्या के परिश्रम से युक्त भगवान् विष्णु के अंगों से नाना प्रकार की जलधाराएँ निकलने लगीं। यह सब भगवान् शिव की माया से ही सम्भव हुआ। महामुने! उस जल से सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया। वह ब्रह्मरूप जल अपने स्पर्शमात्र से सब पापों का नाश करनेवाला सिद्ध हुआ। उस समय थके हुए परम पुरुष विष्णु ने स्वयं उस जल में शयन किया। वे दीर्घ कालतक बड़ी प्रसन्नता के साथ उस में रहे। नार अर्थात् जल में शयन करने के कारण ही उनका 'नारायण' यह श्रुतिसम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ। उस समय उन परम पुरुष नारायण के सिवा दूसरी कोई प्राकृत वस्तु नहीं थी। उसके बाद ही उन महात्मा नारायणदेव से यथासमय सभी तत्त्व प्रकट हुए। महामते। विद्वन्! मैं उन तत्त्वों की उत्पत्ति का प्रकार बता रहा हूँ। सुनो, प्रकृति से महत्तत्त्व प्रकट हुआ और महत्तत्त्व से तीनों गुण। इन गुणों के भेद से ही त्रिविध अहंकार की उत्पत्ति हुई। अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ हुईं और उन तन्मात्राओं से पाँच भूत प्रकट हुए। उसी समय ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का भी प्रादुर्भाव हुआ। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने तुम्हें तत्त्वों की संख्या बतायी है। इन में से पुरुष को छोड़कर शेष सारे तत्त्व प्रकृति से प्रकट हुए हैं इसलिये सब-के-सब जड़ हैं। तत्त्वों की संख्या चौबीस है। उस समय एकाकार हुए चौबीस तत्त्वों को ग्रहण करके वे परम पुरुष नारायण भगवान् शिव की इच्छा से ब्रह्मरूप जल में सो गये।

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