ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
|
0 |
भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
जिस परब्रह्म के विषय में ज्ञान और अज्ञान से पूर्ण उक्तियों द्वारा इस प्रकार (ऊपर बताये अनुसार) विकल्प किये जाते हैं; उसने कुछ काल के बाद (सृष्टि का समय आनेपर) द्वितीय की इच्छा प्रकट की - उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीलाशक्ति से अपने लिये मूर्ति (आकार) की कल्पना की। वह मूर्ति सम्पूर्ण ऐश्वर्य-गुणों से सम्पन्न, सर्वज्ञानमयी, शुभ- स्वरूपा, सर्वव्यापिनी, सर्वरूपा, सर्वदर्शिनी, सर्वकारिणी, सब की एकमात्र वन्दनीया, सर्वाद्या, सब कुछ देनेवाली और सम्पूर्ण संस्कृतियों का केन्द्र थी। उस शुद्धरूपिणी ईश्वर-मूर्ति की कल्पना करके वह अद्वितीय, अनादि, अनन्त, सर्वप्रकाशक, चिन्मय, सर्वव्यापी और अविनाशी परब्रह्म अन्तर्हित हो गया। जो मूर्तिरहित परम ब्रह्म है उसी की मूर्ति (चिन्मय आकार) भगवान् सदाशिव हैं। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान् उन्हीं को ईश्वर कहते हैं। उस समय एकाकी रहकर स्वेच्छानुसार विहार करनेवाले उन सदाशिव ने अपने विग्रह से स्वयं ही एक स्वरूपभूता शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंग से कभी अलग होनेवाली नहीं थी। उस पराशक्ति को प्रधान, प्रकृति, गुणवती, माया, बुद्धितत्त्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है। वह शक्ति अम्बिका कही गयी है। उसी को प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेवजननी, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गयी उस शक्ति के आठ भुजाएँ हैं। उस शुभलक्षणा देवी के मुख की शोभा विचित्र है। वह अकेली ही अपने मुखमण्डल में सदा एक सहस्र चन्द्रमाओं की कान्ति धारण करती है। नाना प्रकार के आभूषण उसके श्रीअंगों की शोभा बढ़ाते हैं। वह देवी नाना प्रकार की गतियों से सम्पन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करती है। उसके खुले हुए नेत्र खिले हुए कमल के समान जान पड़ते हैं। वह अचिन्त्य तेज से जगमगाती है। वह सब की योनि है और सदा उद्यमशील रहती है। एकाकिनी होने पर भी वह माया संयोगवशात् अनेक हो जाती है।
|