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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय ६

महाप्रलयकाल में केवल सद्ब्रह्म की सत्ता का प्रतिपादन, उस निर्गुण-निराकार ब्रह्म से ईश्वरमूर्ति (सदाशिव) का प्राकट्य, सदाशिव द्वारा स्वरूपभूता शक्ति (अम्बिका) का प्रकटीकरण, उन दोनों के द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन) का प्रादुर्भाव, शिव के वामांग से परम पुरुष (विष्णु) का आविर्भाव तथा उनके सकाश से प्राकृत तत्त्वों की क्रमश: उत्पत्ति का वर्णन

ब्रह्माजी ने कहा- ब्रह्मन्! देवशिरोमणे। तुम सदा समस्त जगत् के उपकार में ही लगे रहते हो। तुमने लोगों के हित की कामना से यह बहुत उत्तम बात पूछी है। जिसके सुनने से सम्पूर्ण लोकों के समस्त पापों का क्षय हो जाता है उस अनामय शिवतत्त्व का मैं तुमसे वर्णन करता हूँ। शिवतत्त्व का स्वरूप बड़ा ही उत्कृष्ट और अद्भुत है। जिस समय समस्त चराचर जगत् नष्ट हो गया था, सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था। न सूर्य दिखायी देते थे न चन्द्रमा। अन्यान्य ग्रहों और नक्षत्रों का भी पता नहीं था। न दिन होता था न रात; अग्नि, पृथ्वी, वायु और जल की भी सत्ता नहीं थी। प्रधान तत्त्व (अव्याकृत प्रकृति) से रहित सूना आकाशमात्र शेष था, दूसरे किसी तेज की उपलब्धि नहीं होती थी। अदृष्ट आदि का भी अस्तित्व नहीं था। शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके थे। गन्ध और रूप की भी अभिव्यक्ति नहीं होती थी। रस का भी अभाव हो गया था। दिशाओं का भी भान नहीं होता था। इस प्रकार सब ओर निरन्तर सूचीभेद्य घोर अन्धकार फैला हुआ था। उस समय 'तत्सद् ब्रह्म' इस श्रुति में जो 'सत्' सुना जाता है एकमात्र वही शेष था। जब 'यह', 'वह', 'ऐसा', 'जो' इत्यादि रूपसे निर्दिष्ट होनेवाला भावाभावात्मक जगत् नहीं था, उस समय एकमात्र वह 'सत्' ही शेष था, जिसे योगीजन अपने हृदयाकाश के भीतर निरन्तर देखते हैं। वह सत्तत्त्व मन का विषय नहीं है। वाणी की भी वहाँ तक कभी पहुँच नहीं होती। वह नाम तथा रूप-रंग से भी शून्य है। वह न स्थूल है न कृश, न ह्रस्व है न दीर्घ तथा न लघु है न गुरु। उसमें न कभी वृद्धि होती है न ह्रास। श्रुति भी उसके विषय में चकितभावसे 'है' इतना ही कहती है अर्थात् उस की सत्तामात्र का ही निरूपण कर पाती है उसका कोई विशेष विवरण देने में असमर्थ हो जाती है। वह सत्य, ज्ञानस्वरूप, अनन्त, परमानन्दमय, परम ज्योतिःस्वरूप, अप्रमेय, आधार रहित, निर्विकार, निराकार, निर्गुण, योगिगम्य, सर्वव्यापी, सबका एकमात्र कारण, निर्विकल्प, निरारम्भ, मायाशून्य, उपद्रव-रहित, अद्वितीय, अनादि, अनन्त, संकोच-विकास से शून्य तथा चिन्मय है।

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