ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
ब्रह्माजी कहते हैं- ऐसा कहकर भगवान् विष्णु चुप हो गये और युद्ध के लिये कमर कसकर डट गये। महाबली वीरभद्र भी अपने गणों के साथ युद्ध के लिये तैयार हो गये। नारद! तदनन्तर भगवान् विष्णु और वीरभद्र में घोर युद्ध हुआ। अन्त में वीरभद्र ने भगवान् विष्णु के चक्र को स्तम्भित कर दिया तथा शार्ङ्गधनुष के तीन टुकड़े कर डाले। तब मेरे द्वारा एवं सरस्वती द्वारा बोधित हुए श्रीविष्णु ने उस महान्गणनायक वीरभद्र को असह्य तेज से सम्पन्न जानकर वहाँ से अन्तर्धान होनेका विचार किया। दूसरे देवता भी यह जान गये कि सती के प्रति जो अन्याय हुआ है उसी का यह सब भावी परिणाम है। दूसरों के लिये इस संकट का सामना करना अत्यन्त कठिन है। यह जानकर वे सब देवता अपने सेवकों के साथ स्वतन्त्र सर्वेश्वर शिव का स्मरण करके अपने-अपने लोक को चले गये। मैं भी पुत्र के दुःख से पीड़ित हो सत्यलोक में चला आया और अत्यन्त दुःख से आतुर हो सोचने लगा कि अब मुझे क्या करना चाहिये। मेरे तथा श्रीविष्णु के चले जानेपर मुनियों सहित समस्त यज्ञ के आधार रहनेवाले देवता शिवगणों द्वारा पराजित हो भाग गये। उस उपद्रव को देखकर और उस महामख का विध्वंस निकट जानकर वह यज्ञ भी अत्यन्त भयभीत हो मृग का रूप धारण करके वहाँ से भागा। मृग के रूप में आकाश की ओर भागते देख वीरभद्र ने उसे पकड़ लिया और उसका मस्तक काट डाला। फिर उन्होंने मुनियों तथा देवताओं के अंग-भंग कर दिये और बहुतों को मार डाला। प्रतापी मणिभद्र ने भृगु को उठाकर पटक दिया और उनकी छाती को पैर से दबाकर तत्काल उनकी दाढ़ी-मूँछ नोच ली। चण्ड ने बड़े वेग से पूषाके दाँत उखाड़ लिये; क्योंकि पूर्वकाल में जिस समय महादेवजी को दक्ष के द्वारा गालियाँ दी जा रही थीं, उस समय वे दाँत दिखा-दिखाकर हँसे थे। नन्दी ने भग को रोषपूर्वक पृथ्वी पर दे मारा और उनकी दोनों आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष शिवजी को शाप दे रहे थे, उस समय वे आँखों के संकेत से अपना अनुमोदन सूचित कर रहे थे। वहाँ रुद्रगणनायकों ने स्वधा, स्वाहा और दक्षिणा देवियों की बड़ी विडम्बना (दुर्दशा) की। वहाँ जो मन्त्र-तन्त्र तथा दूसरे लोग थे, उनका भी बहुत तिरस्कार किया। ब्रह्मपुत्र दक्ष भय के मारे अन्तर्वेदी के भीतर छिप गये। वीरभद्र उनका पता लगाकर उन्हें बलपूर्वक पकड लाये। फिर उनके दोनों गाल पकड़कर उन्होंने उनके मस्तक पर तलवार से आघात किया। परंतु योग के प्रभावसे दक्ष का सिर अभेद्य हो गया था, इसलिये कट नहीं सका। जब वीरभद्र को ज्ञात हुआ कि सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों से इनके मस्तकका भेदन नहीं हो सकता, तब उन्होंने दक्ष की छाती पर पैर रखकर दबाया और दोनों हाथों से गर्दन मरोड़कर तोड़ डाली। फिर शिवद्रोही दुष्ट दक्ष के उस सिर को गणनायक वीरभद्र ने अग्निकुण्ड में डाल दिया। तदनन्तर जैसे सूर्य घोर अन्धकार राशि का नाश करके उदयाचल पर आरूढ़ होते हैं उसी प्रकार वीरभद्र दक्ष और उनके यज्ञ का विध्वंस करके कृतकार्य हो तुरंत ही वहाँ से उत्तम कैलास पर्वत को चले गये। वीरभद्र को काम पूरा करके आया देख परमेश्वर शिव मन-ही-मन बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने उन्हें वीर प्रमथगणों का अध्यक्ष बना दिया।
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