संभोग से समाधि की ओर
A PHP Error was encounteredSeverity: Notice Message: Undefined index: author_hindi Filename: views/read_books.php Line Number: 21 |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> संभोग से समाधि की ओर |
संभोग से समाधि की ओर...
उस आदमी ने कहा, मैंने इतने दिन तक छिपाने की कोशिश की, लेकिन आज मैं हार गया
हूं। शायद तुम्हें पता नहीं कि पहली तस्वीर भी तुमने मेरी ही बनाई थी। ये
दोनों तस्वीरें मेरी हैं। बीस साल पहले पहाड़ पर जो आदमी तुम्हें मिला था, वह
मैं ही हूं। और इसलिए रोता हूं कि मैंने बीस साल में कौन-सी यात्रा कर
ली-स्वर्ग से नरक की, परमात्मा से पाप की।
पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है। सच हो या न हो, लेकिन हर आदमी के जीवन में
दो तस्वीरें हैं। हर आदमी के भीतर शैतान है और हर आदमी के भीतर परमात्मा भी।
और हर आदमी के भीतर नरक की भी संभावना है और स्वर्ग की भी। हर आदमी के भीतर
सौंदर्य के फूल भी खिल सकते हैं और कुरूपता के गंदे डबरे भी बन सकते हैं।
प्रत्येक आदमी इन दो यात्राओं के बीच निरंतर डोल रहा है। ये दो छोर हैं
जिनमें से आदमी किसी को भी छू सकता है। और अधिक लोग नरक के छोर को छू लेते
हैं और बहुत कम सौभाग्यशाली हैं जो अपने भीतर परमात्मा को उभार पाते हैं।
क्या हम अपने भीतर परमात्मा को उभार पाने में सफल हो सकते हैं? क्या हम भी वह
प्रतिमा बन सकेंगे, जहां परमात्मा की झलक मिले?
यह कैसे हो सकता है-इस प्रश्न के साथ ही आज की दूसरी चर्चा मैं शुरू करना
चाहता हूं। यह कैसे हो सकता है कि आदमी परमात्मा की प्रतिमा बने? यह कैसे हो
सकता है कि आदमी का जीवन एक स्वर्ग बने-एक सुवास, एक सुगंध, एक सौंदर्य? यह
कैसे हो सकता है कि मनुष्य उसे जान ले, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है? यह कैसे हो
सकता है कि मनुष्य परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट हो जाए?
होता तो उल्टा है। बचपन में हम कहीं स्वर्ग में होते हैं और बूढ़े होते-होते
नरक तक पहुंच जाते हैं! होता उल्टा है। होता यह है कि बचपन के बाद जैसे हमारा
रोज पतन होता है। बचपन में तो किसी इनोसेंस, किसी निदोंष संसार का हम अनुभव
करते हैं और फिर धीरे-धीरे एक कपट से भरा हुआ पाखंड से भरा हुआ मार्ग हम तय
करते हैं। और बूढ़ा होते-होते न केवल हम शरीर से बूढ़े हो जाते हैं बल्कि हम
आत्मा से भी बूढ़े हो जाते हैं। न केवल शरीर दीन-हीन, जीर्ण-जर्जर हो जाता है,
बल्कि आत्मा भी पतित, जीर्ण-जर्जर हो जाती है। और इसे ही हम जीवन मान लेते
हैं और समाप्त हो जाते हैं!
धर्म इस संबंध में संदेह उठाना चाहता है। धर्म एक बड़ा संदेह है इस संबंध में
कि यह आदमी के जीवन की यात्रा गलत है कि स्वर्ग से हम नरक तक पहुंच जाएं।
होना तो उल्टा चाहिए। जीवन की यात्रा उपलब्धि की यात्रा होनी चाहिए-कि हम
दुःख से आनंद तक पहुंचें, हम अंधकार से प्रकाश तक पहुंचें, हम मृत्यु से अमृत
तक पहुंच जाएं। प्राणों के प्राण की अभिलाषा और प्यास भी वही है। प्राणों में
एक ही आकांक्षा है कि मृत्यु से अमृत तक कैसे पहुंचें? प्राणों में एक ही
प्यास है कि हम अंधकार से आलोक को कैसे उपलब्ध हों, प्राणों की एक ही मांग है
कि हम असत्य से सत्य तक कैसे जा सकते हैं?
निश्चित ही सत्य की यात्रा के लिए, निश्चित ही स्वयं के भीतर परमात्मा की खोज
के लिए व्यक्ति को ऊर्जा का एक संग्रह चाहिए, कंजरवेशन चाहिए; व्यक्ति को
शक्ति का एक संवर्धन चाहिए, उसके भीतर शक्ति इकट्ठी हो कि वह शक्ति का एक
स्रोत बन जाए, तभी व्यक्तित्व को स्वर्ग तक ले जाया जा सकता है।
To give your reviews on this book, Please Login