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संभोग से समाधि की ओर

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संभोग से समाधि की ओर...


स्वर्ग निर्बलों के लिए नहीं है। जीवन के सत्य उनके लिए नहीं हैं जो दीन-हीन हो जाते हैं शक्ति को खोकर। जो जीवन की सारी शक्ति को खो देते हैं और भीतर दुर्बल और दीन हो जाते हैं वे यात्रा नहीं कर सकते। उस यात्रा पर चढ़ने के लिए, उन पहाड़ों पर चढ़ने के लिए शक्ति चाहिए।
और शक्ति का संवर्धन धर्म वा सूत्र है-शक्ति का संवर्धन कंजरवेशन ऑफ एनजीं। कैसे शक्ति इकट्ठी हो कि हम शक्ति के उबलते हुए भंडार हो जाए?
लेकिन हम तो दीन-हीन जन हैं। सारी शक्ति खोकर हम धीरे-धीरे निर्बल होते चले जाते हैं। सब खो जाता है भीतर, रिक्तता रह जाती है, खाली। खालीपन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं छूटता है।
हम शक्ति को कैसे खो देते हैं?
मनुष्य का शक्ति को खोने का सबसे बड़ा द्वार सेक्स है। काम मनुष्य की शक्ति के खोने का सबसे बड़ा द्वार है, जहां से वह शक्ति को खोता है।
और जैसा मैंने कल आपसे कहा, कोई कारण है जिसकी वजह से वह शक्ति को खोता है। शक्ति को कोई भी खोना नहीं चाहता है। कौन शक्ति को खोना चाहता है? लेकिन. कुछ झलक है उपलब्धि की, उस झलक के लिए आदमी शक्ति को खोने को राजी हो जाता है। काम के क्षणों में कुछ अनुभव है, उस अनुभव के लिए आदमी सब कुछ खोने को तैयार हो जाता है। अगर वह अनुभव किसी और मार्ग से उपलब्ध हो सके तो मनुष्य सेक्स के माध्यम से शक्ति को खोने को कभी भी तैयार नहीं हो सकता।
क्या और कोई द्वार है, उस अनुभव को पाने का? क्या और कोई मार्ग है उस अनुभूति को उपलब्ध करने का-जहां हम अपने प्राणों की गहरी-सी गहराई में उतर जाते है, जहां हम जीवन का ऊचा-से-ऊंचा शिखर छते हैं, जहां हम जीवन की शांति और आनंद की एक झलक पाते हैं? क्या कोई ओर मार्ग है? क्या कोई और मार्ग है अपने भीतर पहुंच जाने का? क्या स्वयं की शांति और आनंद के स्रोत तक पहुंच जाने की और कोई सीढ़ी है? अगर वह सीढी हमें दिखाई पड़ जाए तो जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है। आदमी काम के प्रति विमुख और राम के प्रति सम्मुख हो जाता है। एक क्रांति घटित हो जाती है, एक नया द्वार खुल जाता है।
मनुष्य की जाति को अगर हम नया द्वार न दे सकें तो मनुष्य एक रिपिटीटिव सर्किल में, एक पुनरुक्ति वाले चक्कर में घूमता है और नष्ट होता है। लेकिन आज तक सेक्स के संबंध मे जो भी धारणाएं रही है, वह मनुष्य को सेक्स के अतिरिक्त नया द्वार खोलने मे समर्थ नहीं बना पाई। बल्कि एक उल्टा उपद्रव हुआ। प्रकृति एक ही द्वार देती है मनुष्य को वह सेक्स का द्वार है। अब तक की शिक्षाओं ने वह बंद भी कर दिया और नया द्वार खोला नहीं! शक्ति भीतर घूमने लगी और चक्कर काटने लगी। और अगर नया द्वार शक्ति के लिए न मिले तो घूमती हुई शक्ति मनुष्य को विक्षिप्त कर देती है, पागल कर देती है। और विक्षिप्त मनुष्य फिर न केवल उस द्वार से, जो सेक्स का सहज द्वार था निकलने की चेष्टा करता है, वह दीवालों और खिड़कियों को तोड़कर भी उसकी शक्ति बाहर बहने लगती है! वह अप्राकृतिक मार्गों से भी सेक्स की शक्ति बाहर बहने लगती है।

यह दुर्घटना घटी है। यह मनुष्य-जाति के बड़े-से-बड़े दुर्भाग्यों में से एक है। नया द्वार नहीं खोला गया और पुराना द्वार बंद कर दिया गया। इसलिए मैं सेक्स के विरोध में; दुश्मनी के लिए दमन के लिए अब तक जो भी शिक्षाएं दी गई हैं उन सबके स्पष्ट विरोध में खड़ा हुआ हू। उन सारी शिक्षाओं से मनुष्य की सेक्सुअलिटी बढ़ी है। कम नहीं हुई, बल्कि विकृत हुई है। क्या करें लेकिन? कोई और द्वार खोला जा सकता है?

मैंने आपसे कल कहा संभोग के क्षण की जो प्रतीति है, वह प्रतीति दो बातों की है-टाइमलेसनेस और इगोलेसनेस की। समय शून्य हो जाता है और अहंकार विलीन हो जाता है। समय शून्य होने से और अहंकार विलीन होने से हमें उसकी एक झलक मिलती है, जो हमारा वास्तविक जीवन है। लेकिन क्षण-भर की झलक और हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। और एक बड़ी ऊर्जा, एक बड़ी वैद्युतिक शक्ति का प्रवाह, इसमें हम खो देते हैं। फिर उस झलक की याद, स्मृति, मन को पीड़ा देती रहती है। हम वापस उस अनुभव को पाना चाहते है-वापस उस अनुभव को पाना चाहते हैं और वह झलक इतनी छोटी हैं, एक क्षण में खो जाती है! ठीक से उसकी स्मृति भी नहीं रह जाती कि क्या थी झलक, हमने क्या जाना था? बस एक धुन एक अर्ज, एक पागल प्रतीक्षा रह जाती है फिर उस अनुभव को पाने की। और जीवन भर आदमी इसी चेष्टा में संलग्न रहता है, लेकिन उस झलक को एक क्षण से ज्यादा नहीं पा सकता है। वही झलक ध्यान के माध्यम से भी उपलब्ध होती है।
मनुष्य की चेतना तक पहुंचने के दो मार्ग है-काम और ध्यान सेक्स और मेडिटेशन।
सेक्स प्राकृतिक मार्ग है, जो प्रकृति ने दिया हुआ है। जानवरों को भी दिया हुआ है, पक्षियों को भी दिया हुआ है, पौधों को भी दिया हुआ है, मनुष्यों को भी दिया हुआ है। और जब तक मनुष्य केवल प्रकृति के दिए हुए द्वार का उपयोग करता है, तब तक वह पशुओं से ऊपर नहीं है। नहीं हो सकता। वह सारा द्वार तो पशुओं के लिए भी उपलब्ध है।
मनुष्यता का प्रारंभ उस दिन से होता है, जिस दिन से मनुष्य सेक्स के अतिरिक्त एक नया द्वार खोलने में समर्थ हो जाता है। उसके पहले हम मनुष्य नहीं हैं। नाममात्र को मनुष्य हैं। उसके पहले हमारे जीवन का केद्र पशु का केंद्र है, प्रकृति का केंद्र है। जब तक हम उसके ऊपर उठ नहीं कर पाएं, उसे ट्रांसेड नहीं कर पाएं, उसका अतिक्रमण नहीं कर पाएं, तब तक हम पशुओं की भांति ही जीते हैं।

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