श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3
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प्रकृते क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27।।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27।।
वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों
द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा
अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है।।27।।
निर्गुण ब्रह्म जगत् के रूप में अभिव्यक्त होता है। यह अभिव्यक्ति विभिन्न गुणों, रूपों तथा आकारों में होती है। इस व्यक्त जगत् में प्रगट हुई विभिन्न वस्तुएँ अपने-अपने गुणों के अनुसार एक दूसरे से व्यवहार करती हैं। उदाहरण के लिए वनस्पति और विभिन्न प्रकार के अन्न में यह गुण होता है कि कुछ पशु और मनुष्य उन्हें भोजन के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। इस प्रकार ग्रहण किया भोजन मनुष्य के शरीर को पोषित करता हैं। इस भोजन से प्राप्त ऊर्जा और शक्ति से मनुष्य अन्य फलों तथा अन्न की खेती करता है। इसी प्रकार प्रकृति के रासायनिक गुणों से उत्पन्न हुए खनिज पदार्थों का उपयोग करते मनुष्य विभिन्न उद्योगों को चलाता है। इस प्रकार बने हुए सामान का वह उपभोग करता है, और इस सामान की उपयोगिता समाप्त होने पर वह उसे कूड़े में डाल देता है। कूड़ें पर याँत्रिक विधियाँ लगाकर उसे पुनः उपयोगी बनाया जाता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन् स्वभाव और गुणों के कारण मनुष्य की आवश्यकताएँ भी भिन्न होती है। इन आवश्यकाओँ को पूरा करने के लिए वह उपयुक्त गुणों की वस्तुओँ का प्रयोग करता है। मनुष्य के गुण जैसे बुद्धि, दया, क्रोध, मन, हृदय, शरीर, अहंकार इत्यादि भी प्रकृति से निकले हैं और इसी प्रकृति का अंग है। इसी प्रकार वस्तुओँ के गुण भी इसी प्रकृति से निकले हैं और इसी प्रकृति का अंग हैं। इस प्रकार सारे कर्म प्रकृति द्वारा तथा प्रकृति के लिए किये जाते हैं। अन्तःकरण भी प्रकृति से निकला है और अहंकार भी। इसलिए कर्ता भी प्रकृति ही है, न कि व्यक्तिगत अहंकार।
निर्गुण ब्रह्म जगत् के रूप में अभिव्यक्त होता है। यह अभिव्यक्ति विभिन्न गुणों, रूपों तथा आकारों में होती है। इस व्यक्त जगत् में प्रगट हुई विभिन्न वस्तुएँ अपने-अपने गुणों के अनुसार एक दूसरे से व्यवहार करती हैं। उदाहरण के लिए वनस्पति और विभिन्न प्रकार के अन्न में यह गुण होता है कि कुछ पशु और मनुष्य उन्हें भोजन के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। इस प्रकार ग्रहण किया भोजन मनुष्य के शरीर को पोषित करता हैं। इस भोजन से प्राप्त ऊर्जा और शक्ति से मनुष्य अन्य फलों तथा अन्न की खेती करता है। इसी प्रकार प्रकृति के रासायनिक गुणों से उत्पन्न हुए खनिज पदार्थों का उपयोग करते मनुष्य विभिन्न उद्योगों को चलाता है। इस प्रकार बने हुए सामान का वह उपभोग करता है, और इस सामान की उपयोगिता समाप्त होने पर वह उसे कूड़े में डाल देता है। कूड़ें पर याँत्रिक विधियाँ लगाकर उसे पुनः उपयोगी बनाया जाता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन् स्वभाव और गुणों के कारण मनुष्य की आवश्यकताएँ भी भिन्न होती है। इन आवश्यकाओँ को पूरा करने के लिए वह उपयुक्त गुणों की वस्तुओँ का प्रयोग करता है। मनुष्य के गुण जैसे बुद्धि, दया, क्रोध, मन, हृदय, शरीर, अहंकार इत्यादि भी प्रकृति से निकले हैं और इसी प्रकृति का अंग है। इसी प्रकार वस्तुओँ के गुण भी इसी प्रकृति से निकले हैं और इसी प्रकृति का अंग हैं। इस प्रकार सारे कर्म प्रकृति द्वारा तथा प्रकृति के लिए किये जाते हैं। अन्तःकरण भी प्रकृति से निकला है और अहंकार भी। इसलिए कर्ता भी प्रकृति ही है, न कि व्यक्तिगत अहंकार।
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