लोगों की राय

श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: author_hindi

Filename: views/read_books.php

Line Number: 21

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

(यह पुस्तक वेबसाइट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है।)

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28।।
 
परन्तु हे महाबाहो! गुणविभाग और कर्मविभाग1 के तत्त्व2 को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता।।28।।

(1. त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय - इन सबके समुदाय का नाम 'गुणविभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्मविभाग' है।
2. उपर्युक्त 'गुणविभाग' और 'कर्मविभाग' से आत्मा को पृथक् अर्थात् निर्लेप जानना ही इनका तत्त्व जानना है।)
ईश्वर पाँच महाभूत अर्थात् वायु, अग्नि, वरुण, पृथ्वी और आकाश के रूप में व्यक्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त चेतन उद्भूतों में मनुष्य के गुणों के रूप में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ दृष्टि, ध्वनि, स्वाद, गंध और स्पर्श आदि हैं। इसी प्रकार पाँच कर्मेन्द्रियाँ अर्थात् नेत्र, कान, जिह्वा, नासिका और त्वचा भी गुण हैं। इसी प्रकार रूप, स्वर, रस, गन्ध और स्पर्श पाँच विषय हैं जिनमें प्रत्येक मनुष्य उलझा हुआ है। इन सभी गुणों की आपस में क्रिया-प्रतिक्रिया और इन गुणों की मनुष्यों से क्रिया-प्रतिक्रिया को ही हम संसार के नाम से जानते हैं। इन सभी गुणों और कर्मों का आधार परमात्मा है। ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि गुण और कर्म व्यक्त जगत् हैं, इसलिए जगत् के स्तर पर एक दूसरे से कार्य व्यवहार करते हैं, परंतु इनका आधार आत्मा इनको अस्तित्व देते और इनको अपने से पृथक् जानते हुए इनमें आसक्त नहीं होता है।

...Prev | Next...

To give your reviews on this book, Please Login