श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3
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न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।।
परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिये
कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्तिवाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम
अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे। किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त
कर्म भलीभांति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे।।26।।
मनुष्य इस प्रकृति में ज्ञान का सर्वोत्तम वाहक है। जीवन के विकास की प्रकिया में मनुष्य ने अधिकांश भौतिक और व्यावहारिक ज्ञान एक दूसरे को सिखाकर अर्जित किया है। इसलिए कालांतर में यह हमारी आदत बन गई है कि जब भी हम कोई नया ज्ञान अर्जित करते हैं, तो उत्साह में भर कर उसे अन्य लोगों को बताना चाहते हैं। इस संदर्भ में ध्यान दिलाते हुए भगवान् कहते हैं कि एक तत्त्व ज्ञानी जब परमात्मा का साक्षात् अनुभव करके अपने वास्तविक रूप में अटल स्थित हो जाता है, तो उसके लिए कर्म की बाध्यता समाप्त हो जाती है। इस परिस्थिति में इस बात की संभावना हो सकती है, कि अति उत्साह में वह अन्य व्यक्तियों को भी यह कहने लगे कि कर्म तथा कर्म-बंधन वास्तव में मिथ्या है। अज्ञान की अवस्था में अपने स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार शास्त्रविहित कर्म कर रहे लोग इस बात को सुनकर दिग्भ्रमित हो सकते हैं, यहाँ तक कि यह भी संभव है कि वे अपनी परिस्थिति के लिए अत्यंत आवश्यक कर्मों से भी विमुख हो जायें।
शास्त्रविहित कर्मों का रूप समय के साथ परिवर्तित होता रहता है। उदाहरण के लिए वैदिक काल में इस युग की प्राकृतिक सत्ताओँ को प्रसन्न करने के लिए साधक विभिन्न प्रकार के यज्ञ करते थे। वहीं भगवान् बुद्ध के काल से प्रारम्भ होते हुए मानव मात्र की सेवा और बौद्धिक विचार-विमर्श तथा विभिन्न प्रकार के मानसिक अनुसंधान किए जाते रहे। विभिन्न कालों के राजा अपने समय के अनुसार जय-विजय करते रहे। उनके समय की प्रजा यथाशक्ति अपने जीवन का पालन करती रही। इसी प्रकार पिछले कई सहस्त्र वर्षों से शास्त्र अपने समय के अनुसार अलग-अलग कर्मों का विधान करते रहे हैं।
मुख्यतः मानव की उन्नति, समाज की सुव्यवस्था और प्राणीमात्र का उद्धार आदि के ध्येय में सहायक कर्मों को शास्त्र विहित कर्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है। यदि आज के संदर्भ में इन्हें समझना हो तो उसे भी वर्ण व्यवस्था के आधार पर सुगमता से समझा जा सकता है। जिन्हें ज्ञान में स्वाभाविक रुचि हो उन्हें ऐसे कार्य करने चाहिए, जिनमें अनुसंधान, शिक्षा, विशेष ज्ञान की आवश्यकता हो। जिन्हें नेतृत्व, अनुशासन अथवा नियंत्रण करने में रुचि हो शासकीय अथवा, प्रबंधन आदि कार्यों में रुचि लेनी चाहिए। जिनका तन-मन वैभव, आराम अथवा धन तथा हर प्रकार के सुख ढूँढता हो, उन्हें व्यापारिक कार्यों में रुचि लेनी चाहिए। जिन्हें जीवन में कोई विशेष प्रयोजन नहीं सिद्ध करने हों, उन्हें सरल कार्यों में रुचि लेनी चाहिे। इस प्रकार अपनी मनःस्थिति और रुचि के अनुसार कार्य करते हुए आध्यात्मिक साधना करनी चाहिए।
यदि आप ध्यान दें तो इस अध्याय के आरंभ में ही अर्जुन भगवान् से पूछ रहे हैं कि यदि ज्ञान का मार्ग श्रेष्ठ है तो आप मुझे कर्म में क्यों लगाते हैं? अर्जुन के लिए ज्ञान अथवा संन्यास का मार्ग उचित नहीं है, क्योंकि वे क्षत्रिय योद्धा हैं, सारे जीवन उन्होने अपने शरीर और मन को तपाकर नाना प्रकार की शस्त्र साधनाएँ की हैं। क्षणिक आवेग में आकर वे यदि युद्ध का मार्ग छोड़ दें और संन्यास, ज्ञान अथवा धन का मार्ग पकड़ने की चेष्टा करें तो कुछ समय पश्चात् ही ऐसे कार्यों में उनका मन लगना बंद हो जायेगा और वे पुनः किसी-न-किसी प्रकार की शस्त्र साधना अथवा रण-कौशल के बारे में सोचने लगेंगे।
मनुष्य इस प्रकृति में ज्ञान का सर्वोत्तम वाहक है। जीवन के विकास की प्रकिया में मनुष्य ने अधिकांश भौतिक और व्यावहारिक ज्ञान एक दूसरे को सिखाकर अर्जित किया है। इसलिए कालांतर में यह हमारी आदत बन गई है कि जब भी हम कोई नया ज्ञान अर्जित करते हैं, तो उत्साह में भर कर उसे अन्य लोगों को बताना चाहते हैं। इस संदर्भ में ध्यान दिलाते हुए भगवान् कहते हैं कि एक तत्त्व ज्ञानी जब परमात्मा का साक्षात् अनुभव करके अपने वास्तविक रूप में अटल स्थित हो जाता है, तो उसके लिए कर्म की बाध्यता समाप्त हो जाती है। इस परिस्थिति में इस बात की संभावना हो सकती है, कि अति उत्साह में वह अन्य व्यक्तियों को भी यह कहने लगे कि कर्म तथा कर्म-बंधन वास्तव में मिथ्या है। अज्ञान की अवस्था में अपने स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार शास्त्रविहित कर्म कर रहे लोग इस बात को सुनकर दिग्भ्रमित हो सकते हैं, यहाँ तक कि यह भी संभव है कि वे अपनी परिस्थिति के लिए अत्यंत आवश्यक कर्मों से भी विमुख हो जायें।
शास्त्रविहित कर्मों का रूप समय के साथ परिवर्तित होता रहता है। उदाहरण के लिए वैदिक काल में इस युग की प्राकृतिक सत्ताओँ को प्रसन्न करने के लिए साधक विभिन्न प्रकार के यज्ञ करते थे। वहीं भगवान् बुद्ध के काल से प्रारम्भ होते हुए मानव मात्र की सेवा और बौद्धिक विचार-विमर्श तथा विभिन्न प्रकार के मानसिक अनुसंधान किए जाते रहे। विभिन्न कालों के राजा अपने समय के अनुसार जय-विजय करते रहे। उनके समय की प्रजा यथाशक्ति अपने जीवन का पालन करती रही। इसी प्रकार पिछले कई सहस्त्र वर्षों से शास्त्र अपने समय के अनुसार अलग-अलग कर्मों का विधान करते रहे हैं।
मुख्यतः मानव की उन्नति, समाज की सुव्यवस्था और प्राणीमात्र का उद्धार आदि के ध्येय में सहायक कर्मों को शास्त्र विहित कर्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है। यदि आज के संदर्भ में इन्हें समझना हो तो उसे भी वर्ण व्यवस्था के आधार पर सुगमता से समझा जा सकता है। जिन्हें ज्ञान में स्वाभाविक रुचि हो उन्हें ऐसे कार्य करने चाहिए, जिनमें अनुसंधान, शिक्षा, विशेष ज्ञान की आवश्यकता हो। जिन्हें नेतृत्व, अनुशासन अथवा नियंत्रण करने में रुचि हो शासकीय अथवा, प्रबंधन आदि कार्यों में रुचि लेनी चाहिए। जिनका तन-मन वैभव, आराम अथवा धन तथा हर प्रकार के सुख ढूँढता हो, उन्हें व्यापारिक कार्यों में रुचि लेनी चाहिए। जिन्हें जीवन में कोई विशेष प्रयोजन नहीं सिद्ध करने हों, उन्हें सरल कार्यों में रुचि लेनी चाहिे। इस प्रकार अपनी मनःस्थिति और रुचि के अनुसार कार्य करते हुए आध्यात्मिक साधना करनी चाहिए।
यदि आप ध्यान दें तो इस अध्याय के आरंभ में ही अर्जुन भगवान् से पूछ रहे हैं कि यदि ज्ञान का मार्ग श्रेष्ठ है तो आप मुझे कर्म में क्यों लगाते हैं? अर्जुन के लिए ज्ञान अथवा संन्यास का मार्ग उचित नहीं है, क्योंकि वे क्षत्रिय योद्धा हैं, सारे जीवन उन्होने अपने शरीर और मन को तपाकर नाना प्रकार की शस्त्र साधनाएँ की हैं। क्षणिक आवेग में आकर वे यदि युद्ध का मार्ग छोड़ दें और संन्यास, ज्ञान अथवा धन का मार्ग पकड़ने की चेष्टा करें तो कुछ समय पश्चात् ही ऐसे कार्यों में उनका मन लगना बंद हो जायेगा और वे पुनः किसी-न-किसी प्रकार की शस्त्र साधना अथवा रण-कौशल के बारे में सोचने लगेंगे।
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