श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3
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नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन
रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा सम्पूर्ण
प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता।।18।।
जिन महापुरुषों को अपना वास्तविक और पूर्णरूप अनुभव होने लगता है, उनके लिए प्रकृतिजन्य कर्मों की आवश्यकता नहीं रहती है। जीवन जीते हुए प्रत्येक व्यक्ति सतत् कर्म करता रहता है। ये सभी कर्म उसकी किसी-न-किसी इच्छा को पूरी करने के साधन होते हैं। प्रातः नित्य कर्म शरीर की शुद्धि के लिए, दिन के कर्म जीविका के लिए और रात में पुनः आराम करने का कर्म शरीर को सुचारू रूप से चलाने के लिए। व्यक्ति सामान्यतः धन, प्रसिद्धि अथवा सुखी जीवन के लिए कर्म करते हैं। परंतु यदि किसी के पास अपार धन, व्यापक प्रसिद्धि और सर्वथा सुख ही सुख हों तब उनके पास अन्य कर्म करने के विशेष प्रयोजन नहीं रह जाते। परंतु हम देखते हैं कि व्यक्ति फिर भी कुछ न कुछ करता ही रहता है। इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि आत्मानुभव के पश्चात् व्यक्ति को इस संसार की सामान्य इच्छाओँ का प्रयोजन नहीं रह जाता। इसलिए वे कर्म करने के लिए न तो बाध्य होते हैं और न ही उन्हें कर्म करने के लिए अन्य लोगों की तरह प्रयोजन रहता है। परंतु जब तक जीवन है, तब तक शरीर प्रदत्त कार्य करने की क्षमता भी व्यक्ति में रहती है, इसलिए कर्म न करने का भी कोई प्रयोजन नहीं रहता। वे सामान्य व्यवहार की तरह कर्म करते हैं, न कि अपने किसी स्वार्थ को साधने के लिए, क्योंकि इस संसार में जो कुछ मिल सकता है, यदि वह मिल जाये तो स्वार्थ स्वतः ही क्षीण हो जाता है।
जिन महापुरुषों को अपना वास्तविक और पूर्णरूप अनुभव होने लगता है, उनके लिए प्रकृतिजन्य कर्मों की आवश्यकता नहीं रहती है। जीवन जीते हुए प्रत्येक व्यक्ति सतत् कर्म करता रहता है। ये सभी कर्म उसकी किसी-न-किसी इच्छा को पूरी करने के साधन होते हैं। प्रातः नित्य कर्म शरीर की शुद्धि के लिए, दिन के कर्म जीविका के लिए और रात में पुनः आराम करने का कर्म शरीर को सुचारू रूप से चलाने के लिए। व्यक्ति सामान्यतः धन, प्रसिद्धि अथवा सुखी जीवन के लिए कर्म करते हैं। परंतु यदि किसी के पास अपार धन, व्यापक प्रसिद्धि और सर्वथा सुख ही सुख हों तब उनके पास अन्य कर्म करने के विशेष प्रयोजन नहीं रह जाते। परंतु हम देखते हैं कि व्यक्ति फिर भी कुछ न कुछ करता ही रहता है। इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि आत्मानुभव के पश्चात् व्यक्ति को इस संसार की सामान्य इच्छाओँ का प्रयोजन नहीं रह जाता। इसलिए वे कर्म करने के लिए न तो बाध्य होते हैं और न ही उन्हें कर्म करने के लिए अन्य लोगों की तरह प्रयोजन रहता है। परंतु जब तक जीवन है, तब तक शरीर प्रदत्त कार्य करने की क्षमता भी व्यक्ति में रहती है, इसलिए कर्म न करने का भी कोई प्रयोजन नहीं रहता। वे सामान्य व्यवहार की तरह कर्म करते हैं, न कि अपने किसी स्वार्थ को साधने के लिए, क्योंकि इस संसार में जो कुछ मिल सकता है, यदि वह मिल जाये तो स्वार्थ स्वतः ही क्षीण हो जाता है।
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