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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

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यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।17।।
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करनेवाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।।17।।

आध्यात्मिक प्रगति करते हुए जिस मनुष्य को आत्मा का ज्ञानानुभव हो जाता है। उसे आत्मा के गुणागार, अखण्ड, असीम, निर्विकल्प, निराकार, गभीर, सर्वत्र, सर्वज्ञ, अपरिमित, अनंत और वास्तविक स्वरूप का अनुभव होने लगता है। इनमें से अपने आप में केवल कोई एक अनुभव ही मनुष्य की बुद्धि को उसके आगे आने वाले जीवन में उलझाए रखने की सामर्थ्य रखता है, यदि कहीं उसे उपर्युक्त वर्णित सारे अनुभव प्राप्त हों जायें, तब तो स्वाभाविक ही है कि उसकी तृप्ति अभूतपूर्व होगी। मनुष्य के अभिव्यक्त जीवन के कर्म उसकी इस जन्म में अभिव्यक्ति के आधार पर निर्देशित हो सकते हैं। परंतु यदि सतत् परमात्म साधना करते हुए व्यक्ति ज्ञानानुभव को प्राप्त हो जाता है, तब जीवन के आधार पर निर्धारित कर्म उसके लिए इतने गौण हो जाते हैं, कि इनसे मिलने वाली संतुष्टि भी उसके लिए पूर्णतः अनावश्यक हो जाती है। दूसरे शब्दों में कर्तव्य और कर्म उसके लिए होना या न होना दोनों बराबर हो जाते हैं। मनुष्य के लिए कर्तव्यों का निर्धारण उसकी अभिव्यक्त प्रवृत्ति और उसके कारण किए गये कर्म के अनुसार होता है। आत्मानुभव के पश्चात् वह अपने स्वरूप की पूर्णता से परिचित हो जाता है, तब उसकी अभिव्यक्ति भी संकुचित नहीं रहती और इन कर्तव्यों की सीमाएँ उसे बाँध नहीं पातीं।

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