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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

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एवं प्रवर्तितं चक्र नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।16।।

हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करनेवाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।।16।।

प्रकृति के स्वाभाविक विकास चक्र में विभिन्न मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुसार कार्यों में लगे हुए हैं। कोई समाज सेवा करता है, कोई शिक्षा प्रदान करता है, कोई देश अथवा राज्य की सीमाओँ की सुरक्षा करता है, तो कोई स्वास्थ्य सेवाएँ देता है, तो कुछ लोग स्वस्थ वनस्पति और भोजन का प्रबंध संपूर्ण समाज  के लिए करने के लिए उद्यम करते रहते हैं। वहीं कुछ अन्य लोग नगरीय विकास, याँत्रिक उद्योगों और सूचना तंत्रों और गणकीय गणनाओं की सहायता से अंतरिक्ष संबंधित खोजों में लगे रहते हैं। कुछ लोग गंभीर समस्याओं में समाज तथा देश के नागरिकों का नेतृत्व करने में रुचि रखते हैं। इन सबके पृथक् जो लोग केवल इंद्रिय केंद्रित भोगों में ही अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं, वे लोग अपना जीवन व्यर्थ ही गंवा देते हैं।

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