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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

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तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:।।19।।

इसलिये तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभांति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।।19।।

कर्म तो सभी चेतन प्राणी अनवरत् करते रहते हैं, लेकिन यदि कर्म करते समय व्यक्ति किसी कर्म में आसक्त हो जाये तो उसका वह कर्म भविष्य में उसके बंधन का कारण बन जाता है। उदाहरण के लिए यदि किसी को मिठाई अच्छी लगती है और वह मीठा खाते समय उसका आनन्द तो लेता है, परंतु मिठाइयों में आसक्ति नहीं रखता, तब इस स्थिति में वह मिठाइयों का आनन्द तो लेता रहेगा, परंतु मीठा खाना उसकी आवश्यकता नहीं बनेगा। इसके विपरीत यदि मिठाई में उसकी आसक्ति हो जायेगी, तब वह बार-बार मिठाइयाँ खाने का प्रयत्न करेगा। यदि मिठाई नहीं मिलेगी तो वह व्याकुल भी हो जायेगा। अधिक मिठाई खाने से व्याधियाँ भी लग सकने की संभावना रहती है। लेकिन यदि आसक्ति नहीं हो तो वह इस संबंध में स्वतंत्र रहेगा। स्वतंत्र रहने के कारण वह अन्य विषयों पर विचार कर सकेगा। परमात्मा के संबंध में जिज्ञासा उत्पन्न होने पर इस दिशा में प्रयास करेगा। इस स्थिति में उसके प्रयास फलीभूत होकर उसे परमात्म-ज्ञान तक पहुँचा सकते हैं।

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