श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि।।
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि।।4।।
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि।।4।।
संशय और शोकरूपी घने अन्ककार के नाश करनेवाले
श्रीरामरूप सूर्यको भजो।
राक्षसरूपी घने वनको जलाने वाले श्रीरामरूप अग्नि को भजो। जन्म-मृत्युके
भय को नाश करनेवाले श्रीजानकीजीसमेत श्रीरघुवीर को क्यों नहीं भजते ?।।4।।
बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अजद अबिनासिहि।।
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि।।5।।
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि।।5।।
बहुत-सी वासनाओं रूपी मच्छरोंको नाश करनेवाले
श्रीरामरूप हिमराशि (बर्फके
ढेर) को भजो। नित्य एकरस, अजन्मा और अविनाशी श्रीरघुनाथजीको भजो।
मुनियोंको आनन्द देनेवाले, पृथ्वी का भार उतारने वाले और तुलसीदास के उदार
(दयालु) स्वामी श्रीरामजीको भजो।।5।।
दो.-एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकूल सबह पर रहहिं संतत कृपानिधान।।30।।
सानुकूल सबह पर रहहिं संतत कृपानिधान।।30।।
इस प्रकार नगर के स्त्री-पुरुष श्रीरामजी का
गुण-गान करते हैं और कृपानिधान
श्रीरामजी सदा सबपर अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं।।30।।
चौ.-जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका।।1।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका।।1।।
[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे पक्षिराज
गरुड़जी ! जबसे रामप्रतापरूपी
अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य उदित हुआ, तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश भर
गया है। इससे बहुतों को सुख और बहुतोंके मनमें शोक हुआ।।1।।
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।2।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।2।।