श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
चौ.-जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परस्पर इहइ सिखावहिं।।
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि।।1।।
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि।।1।।
लोग जहाँ-तहाँ श्रीरघुनाथजी के गुण गाते हैं
और बैठकर एक दूसरे को यही सीख
देते हैं कि शरणागतका पालन करने वाले श्रीरामजी को भजो; शोभा, शील, रूप और
गुणोंके धाम श्रीरघुनाथजी को भजो।।1।।
जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि।।
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि।।2।।
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि।।2।।
कमलनयन और साँवले शरीरवाले को भजो। पलक जिस
प्रकार नेत्र की रक्षा करते
हैं, उसी प्रकार अपने सेवकों की रक्षा करनेवालेको भजो। सुन्दर बाण, धनुष और
तरकस धारण करनेवाले को भजो। संतरूपी कमलवनके [खिलानेके] लिये सूर्यरूप
रणधीर श्रीरामजी को भजो।।2।।
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि।।
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि।।3।।
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि।।3।।