श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
दो.-भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकई हृदय बहुत सकुचानि।।6क।।
रामहि मिलत कैकई हृदय बहुत सकुचानि।।6क।।
सुमित्राजी अपने पुत्र लक्ष्मणजीकी
श्रीरामजीके चरणों में प्रीति जानकर
उनसे मिलीं। श्रीरामजीसे मिलते समय कैकेयीजी हृदय में बहुत
सकुचायीं।।6(क)।।
लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ।।6ख।।
कैकइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ।।6ख।।
लक्ष्मणजी भी सब माताओंसे मिलकर और आशीर्वाद
पाकर हर्षित हुए। वे कैकेयी
जी से बार-बार मिले, परन्तु उनके मनका क्षोभ (रोष) नहीं जाता।।6(ख)।।
चौ.-सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही।।
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता।।1।।
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता।।1।।
जानकीजी सब सासुओं से मिलीं और उनके चरणों
लगकर उन्हें अत्यन्त हर्ष हुआ।
सासुएँ कुशल पूछकर आशिष दे रही हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल हो।।1।।
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं।।
कनक थार आरती उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं।।2।।
कनक थार आरती उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं।।2।।
सब मातएँ श्रीरघुनाथजीका कमल-सा मुखड़ा देख
रही हैं। [नेत्रोंसे प्रेमके
आँसू उमड़े आते हैं; परन्तु] मंगलका समय जानकर वे आँसुओंके जलको
नेत्रोंमें ही रोक रखती हैं। सोनेके थाल से आरती उतारती हैं और बार-बार
प्रभुके श्री अंगोकी ओर देखती हैं।।2।।
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