श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं।।
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि।।3।।
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि।।3।।
अनेकों प्रकार की निछावरें करती हैं और
हृदय में परमानन्द तथा हर्ष भर रही
हैं। कौसल्याजी बार-बार कृपाके समुद्र और रणधीर श्रीरघुवीर को देख रही
हैं।।3।।
हृदय बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा।।
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे।।4।।
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे।।4।।
वे बार-बार हृदय में विचारती हैं कि इन्होंने
लंका पति रावणको कैसे मारा ?
मेरे ये दोनों बच्चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो बड़े भारी योद्धा
और महान् बली थे।।4।।
दो.-लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकित मातु।
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु।।7।।
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु।।7।।
लक्ष्मणजी और सीताजीसहित प्रभु
श्रीरामचन्द्रजीको माता देख रही हैं। उनका
मन परमानन्द में मग्न है और शरीर बार बार पुलकित हो रहा है।।7।।
चौ.- लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला।।
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा।।1।।
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा।।1।।
लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील,
जाम्बवान् और अंगद तथा हनुमान्
जी आदि सभी उत्तम स्वभाव वाले वीर वानरोंने मनुष्योंके मनोहर शरीर धारण कर
लिये।।1।।
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