श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
रावण को पुनः मन्दोदरी का समझाना
साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।
मंदोदरीं रावनहि बहुरि कहा समुझाइ।। ३५ (ख)॥
मंदोदरीं रावनहि बहुरि कहा समुझाइ।। ३५ (ख)॥
सन्ध्या हो गयी जानकर दशग्रीव विलखता हुआ (उदास होकर) महलमें गया। मन्दोदरीने रावणको समझाकर फिर कहा-॥ ३५ (ख)॥
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही।
सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥
रामानुज लघु रेख खचाई।
सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।
सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥
रामानुज लघु रेख खचाई।
सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।
हे कान्त! मनमें समझकर (विचारकर) कुबुद्धिको छोड़ दो। आपसे और श्रीरघुनाथजीसे युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटे भाईने एक जरा-सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है॥१॥
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा।
जाके दूत केर यह कामा।
कौतुक सिंधु नाघि तव लंका।
आयउ कपि केहरी असंका॥
जाके दूत केर यह कामा।
कौतुक सिंधु नाघि तव लंका।
आयउ कपि केहरी असंका॥
हे प्रियतम! आप उन्हें संग्राममें जीत पायेंगे, जिनके दूतका ऐसा काम है ? खेलसे ही समुद्र लांघकर वह वानरोंमें सिंह (हनुमान) आपकी लंकामें निर्भय चला आया!॥२॥
रखवारे हति बिपिन उजारा।
देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा।
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा।
कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥
देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा।
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा।
कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥
रखवालोंको मारकर उसने अशोकवन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उसने अक्षयकुमारको मार डाला और सम्पूर्ण नगरको जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बलका गर्व कहाँ चला गया था?॥३॥
अब पति मृषा गाल जनि मारहु।
मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु।
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु।
अग जग नाथ अतुलबल जानहु॥
मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु।
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु।
अग जग नाथ अतुलबल जानहु॥
अब हे स्वामी! झूठ (व्यर्थ) गाल न मारिये (डींग न हाँकिये) मेरे कहनेपर हृदयमें कुछ विचार कीजिये। हे पति! आप श्रीरघुपतिको [निरा] राजा मत समझिये, बल्कि अग-जगनाथ (चराचरके स्वामी) और अतुलनीय बलवान् जानिये॥४॥
बान प्रताप जान मारीचा।
तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला।
रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥
तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला।
रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥
श्रीरामजीके बाणका प्रताप तो नीच मारीच भी जानता था। परन्तु आपने उसका कहना भी नहीं माना। जनककी सभामें अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल और अतुलनीय बलवाले आप भी थे॥५॥
भंजि धनुष जानकी बिआही।
तब संग्राम जितेहु किन ताही॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा।
राखा जिअत आँखि गहि फोरा॥
तब संग्राम जितेहु किन ताही॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा।
राखा जिअत आँखि गहि फोरा॥
वहाँ शिवजीका धनुष तोड़कर श्रीरामजीने जानकीको ब्याहा, तब आपने उनको संग्राममें क्यों नहीं जीता? इन्द्रपुत्र जयन्त उनके बलको कुछ-कुछ जानता है। श्रीरामजीने पकड़कर, केवल उसकी एक आँख ही फोड़ दी और उसे जीवित ही छोड़ दिया॥६॥
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी।
तदपि हृदय नहिं लाज बिसेषी॥
तदपि हृदय नहिं लाज बिसेषी॥
शूर्पणखाकी दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदयमें [उनसे लड़नेकी बात सोचते] विशेष (कुछ भी) लज्जा नहीं आती!७॥
दो०- बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबंध।
बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंधः॥३६॥
बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंधः॥३६॥
जिन्होंने विराध और खर-दूषणको मारकर लीलासे ही कबन्धको भी मार डाला; और जिन्होंने बालिको एक ही बाणसे मार दिया, हे दशकन्ध ! आप उन्हें (उनके महत्त्वको) समझिये!॥ ३६।।
जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला।
उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू।
दूत पठायउ तव हित हेतू॥
उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू।
दूत पठायउ तव हित हेतू॥
जिन्होंने खेलसे ही समुद्रको बँधा लिया और जो प्रभु सेनासहित सुबेल पर्वतपर उतर पड़े, उन सूर्यकुलके ध्वजास्वरूप (कीर्तिको बढ़ानेवाले) करुणामय भगवानने आपहीके हितके लिये दूत भेजा॥१॥
सभा माझ जेहिं तव बल मथा।
करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥
अंगद हनुमत अनुचर जाके।
रन बाँकुरे बीर अति बाँके।
करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥
अंगद हनुमत अनुचर जाके।
रन बाँकुरे बीर अति बाँके।
जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुंड में आकर सिंह [उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है]। रण में बाँके अत्यन्त विकट वीर अंगद और हनुमान जिनके सेवक हैं,॥२॥
तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू।
मुधा मान ममता मद बहहू॥
अहह कंत कृत राम बिरोधा।
काल बिबस मन उपज न बोधा।
मुधा मान ममता मद बहहू॥
अहह कंत कृत राम बिरोधा।
काल बिबस मन उपज न बोधा।
हे पति! उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मान, ममता और मदका बोझा ढो रहे हैं! हा प्रियतम! आपने श्रीरामजीसे विरोध कर लिया और कालके विशेष वश होनेसे आपके मनमें अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता॥३॥
काल दंड गहि काहु न मारा।
हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि आवत साईं।
तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं।
हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि आवत साईं।
तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं।
काल दण्ड (लाठी) लेकर किसीको नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचारको हर लेता है। हे स्वामी! जिसका काल (मरण-समय) निकट आ जाता है, उसे आपहीकी तरह भ्रम हो जाता है।। ४॥
दो०- दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥३७॥
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥३७॥
आपके दो पुत्र मारे गये और नगर जल गया। [जो हुआ सो हुआ] हे प्रियतम! अब भी [इस भूलकी] पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिये (श्रीरामजीसे वैर त्याग दीजिये); और हे नाथ! कृपाके समुद्र श्रीरघुनाथजीको भजकर निर्मल यश लीजिये॥ ३७॥
नारि बचन सुनि बिसिख समाना।
सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥
बैठ जाइ सिंघासन फूली।
अति अभिमान त्रास सब भूली।
सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥
बैठ जाइ सिंघासन फूली।
अति अभिमान त्रास सब भूली।
स्त्रीके बाणके समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभामें चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यन्त अभिमानमें फूलकर सिंहासनपर जा बैठा।॥१॥
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