श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
अंगदजी का लंका जाना और रावण की सभा में अंगद-रावण-संवाद
नीक मंत्र सब के मन माना।
अंगद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा।
लंका जाहु तात मम कामा॥
अंगद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा।
लंका जाहु तात मम कामा॥
यह अच्छी सलाह सबके मन में अँच गयी। कृपाके निधान श्रीरामजी ने अंगद से कहा हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिये लङ्का जाओ॥३॥
बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ।
परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥
काजु हमार तासु हित होई।
रिपु सन करेहु बतकही सोई॥
परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥
काजु हमार तासु हित होई।
रिपु सन करेहु बतकही सोई॥
तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो॥४॥
सो०- प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु॥१७(क)॥
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु॥१७(क)॥
प्रभुकी आज्ञा सिर चढ़ाकर और उनके चरणोंकी वन्दना करके अंगदजी उठे [और बोले-] हे भगवान श्रीरामजी! आप जिसपर कृपा करें, वही गुणोंका समुद्र हो जाता है॥१७ (क)॥
स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥१७(ख)॥
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥१७(ख)॥
स्वामीके सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं; यह तो प्रभुने मुझको आदर दिया है [जो मुझे अपने कार्यपर भेज रहे हैं]। ऐसा विचारकर युवराज अंगदका हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥१७ (ख)।
बंदि चरन उर धरि प्रभुताई।
अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई।
प्रभु प्रताप उर सहज असंका।
रन बाँकुरा बालिसुत बंका॥
अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई।
प्रभु प्रताप उर सहज असंका।
रन बाँकुरा बालिसुत बंका॥
चरणोंकी वन्दना करके और भगवानकी प्रभुता हृदयमें धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले। प्रभुके प्रतापको हृदयमें धारण किये हुए रणबांकुरे वीर बालिपुत्र स्वाभाविक ही निर्भय हैं॥१॥
पुर पैठत रावन कर बेटा।
खेलत रहा सो होइ गै भेटा॥
बातहिं बात करष बढ़ि आई।
जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥
खेलत रहा सो होइ गै भेटा॥
बातहिं बात करष बढ़ि आई।
जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥
लङ्कामें प्रवेश करते ही रावणके पुत्रसे भेंट हो गयी, जो वहाँ खेल रहा था। बातों-ही-बातोंमें दोनोंमें झगड़ा बढ़ गया। [क्योंकि] दोनों ही अतुलनीय बलवान् थे और फिर दोनोंकी युवावस्था थी॥२॥
तेहिं अंगद कहुँ लात उठाई।
गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निसिचर निकर देखि भट भारी।
जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥
गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निसिचर निकर देखि भट भारी।
जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥
उसने अंगद पर लात उठायी। अंगद ने [वही] पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार गिराया)। राक्षस के समूह भारी योद्धा देखकर जहाँ-तहाँ [भाग] चले, वे डर के मारे पुकार भी न मचा सके॥३॥
एक एक सन मरमु न कहहीं।
समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी।
आवा कपि लंका जेहिं जारी॥
समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी।
आवा कपि लंका जेहिं जारी॥
एक दूसरे को मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावण के पुत्र) का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं। [रावण-पुत्रकी मृत्यु जानकर और राक्षसोंको भयके मारे भागते देखकर] नगरभरमें कोलाहल मच गया कि जिसने लङ्का जलायी थी, वही वानर फिर आ गया है॥४॥
अब धौं कहा करिहि करतारा।
अति सभीत सब करहिं बिचारा॥
बिनु पूछे मगु देहिं दिखाई।
जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥
अति सभीत सब करहिं बिचारा॥
बिनु पूछे मगु देहिं दिखाई।
जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥
सब अत्यन्त भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अंगदको [रावणके दरबारकी] राह बता देते हैं। जिसे ही वे देखते हैं वही डरके मारे सूख जाता है॥५॥
दो०- गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज॥१८॥
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज॥१८॥
श्रीरामजीके चरणकमलोंका स्मरण करके अंगद रावणकी सभा के द्वारपर गये। और वे धीर, वीर और बल की राशि अंगद सिंह की-सी ऐंड़ (शान) से इधर-उधर देखने लगे॥ १८॥
तुरत निसाचर एक पठावा।
समाचार रावनहि जनावा॥
सुनत बिहँसि बोला दससीसा।
आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥
समाचार रावनहि जनावा॥
सुनत बिहँसि बोला दससीसा।
आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥
तुरंत ही उन्होंने एक राक्षसको भेजा और रावणको अपने आनेका समाचार सूचित किया। सुनते ही रावण हँसकर बोला-बुला लाओ, [देखें] कहाँ का बंदर है॥१॥
आयसु पाइ दूत बहु धाए।
कपिकुंजरहि बोलि लै आए॥
अंगद दीख दसानन बैसें।
सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें॥
कपिकुंजरहि बोलि लै आए॥
अंगद दीख दसानन बैसें।
सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें॥
आज्ञा पाकर बहुत-से दूत दौड़े और वानरोंमें हाथीके समान अंगदको बुला लाये। अंगदने रावणको ऐसे बैठे हुए देखा जैसे कोई प्राणयुक्त (सजीव) काजल का पहाड़ हो!॥ २॥
भुजा बिटप सिर संग समाना।
रोमावली लता जनु नाना॥
मुख नासिका नयन अरु काना।
गिरि कंदरा खोह अनुमाना॥
रोमावली लता जनु नाना॥
मुख नासिका नयन अरु काना।
गिरि कंदरा खोह अनुमाना॥
भुजाएँ वृक्षोंके और सिर पर्वतोंके शिखरोंके समान हैं। रोमावली मानो बहुत-सी लताएँ हैं। मुँह, नाक, नेत्र और कान पर्वतकी कन्दराओं और खोहोंके बराबर हैं॥ ३॥
गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा।
बालितनय अतिबल बाँकुरा॥
उठे सभासद कपि कहुँ देखी।
रावन उर भा क्रोध बिसेषी॥
बालितनय अतिबल बाँकुरा॥
उठे सभासद कपि कहुँ देखी।
रावन उर भा क्रोध बिसेषी॥
अत्यन्त बलवान् बाँके वीर बालिपुत्र अंगद सभा में गये, वे मन में जरा भी नहीं झिझके। अंगदको देखते ही सब सभासद् उठ खड़े हुए। यह देखकर रावणके हृदयमें बड़ा क्रोध हुआ॥४॥
दो०- जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥१९॥
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥१९॥
जैसे मतवाले हाथियोंके झुंडमें सिंह [निःशङ्क होकर] चला जाता है, वैसे ही श्रीरामजीके प्रतापका हृदयमें स्मरण करके वे [निर्भय] सभामें सिर नवाकर बैठ गये॥ १९॥
कह दसकंठ कवन तैं बंदर।
मैं रघुबीर दूत दसकंधर॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई।
तव हित कारन आयउँ भाई॥
मैं रघुबीर दूत दसकंधर॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई।
तव हित कारन आयउँ भाई॥
रावणने कहा-अरे बंदर! तू कौन है ? [अंगदने कहा-] हे दशग्रीव! मैं श्रीरघुवीरका दूत हूँ। मेरे पितासे और तुमसे मित्रता थी। इसलिये हे भाई! मैं तुम्हारी भलाईके लिये ही आया हूँ॥१॥
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती।
सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा।
जीतेहु लोकपाल सब राजा॥
सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा।
जीतेहु लोकपाल सब राजा॥
तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषिके तुम पौत्र हो। शिवजीकी और ब्रह्माजीकी तुमने बहुत प्रकारसे पूजा की है। उनसे वर पाये हैं और सब काम सिद्ध किये हैं। लोकपालों और सब राजाओंको तुमने जीत लिया है॥ २॥
नृप अभिमान मोह बस किंबा।
हरि आनिहु सीता जगदंबा।।
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा।
सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥
हरि आनिहु सीता जगदंबा।।
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा।
सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥
राजमदसे या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजीको हर लाये हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हितभरी सलाह) सुनो! [उसके अनुसार चलनेसे] प्रभु श्रीरामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे॥३॥
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी।
परिजन सहित संग निज नारी॥
सादर जनकसुता करि आगें।
एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें।
परिजन सहित संग निज नारी॥
सादर जनकसुता करि आगें।
एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें।
दाँतोंमें तिनका दबाओ, गलेमें कुल्हाड़ी डालो और कुटुम्बियोंसहित अपनी स्त्रियोंको साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकीजीको आगे करके, इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो-॥४॥
दो०- प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि॥२०॥
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि॥२०॥
और 'हे शरणागतके पालन करनेवाले रघुवंशशिरोमणि श्रीरामजी! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।' [इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो।] आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देंगे॥ २०॥
रे कपिपोत बोलु संभारी।
मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी॥
कहु निज नाम जनक कर भाई।
केहि नातें मानिऐ मिताई॥
मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी॥
कहु निज नाम जनक कर भाई।
केहि नातें मानिऐ मिताई॥
[रावणने कहा-] अरे बंदरके बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओंके शत्रुको तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बापका नाम तो बता। किस नातेसे मित्रता मानता है?॥१॥
अंगद नाम बालि कर बेटा।
तासों कबहुँ भई ही भेटा॥
अंगद बचन सुनत सकुचाना।
रहा बालि बानर मैं जाना॥
तासों कबहुँ भई ही भेटा॥
अंगद बचन सुनत सकुचाना।
रहा बालि बानर मैं जाना॥
[अंगदने कहा-] मेरा नाम अंगद है, मैं बालिका पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी? अंगदका वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया [और बोला---] हाँ, मैं जान गया (मुझे याद आ गया), बालि नामका एक बंदर था॥२॥
अंगद तहीं बालि कर बालक।
उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु।
निज मुख तापस दूत कहायहु॥
उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु।
निज मुख तापस दूत कहायहु॥
अरे अंगद! तू ही बालिका लड़का है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बाँसके लिये अनिरूप ही पैदा हुआ! गर्भमें ही क्यों न नष्ट हो गया? तू व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुँहसे तपस्वियोंका दूत कहलाया!॥३॥
अब कहु कुसल बालि कहँ अहई।
बिहँसि बचन तब अंगद कहई॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई।
बूझेहु कुसल सखा उर लाई।
बिहँसि बचन तब अंगद कहई॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई।
बूझेहु कुसल सखा उर लाई।
अब बालिकी कुशल तो बता, वह [आजकल] कहाँ है? तब अंगदने हँसकर कहा-दस (कुछ) दिन बीतनेपर [स्वयं ही] बालिके पास जाकर, अपने मित्रको हृदयसे लगाकर, उसीसे कुशल पूछ लेना॥४॥
राम बिरोध कुसल जसि होई।
सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें।
श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें।
सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें।
श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें।
श्रीरामजीसे विरोध करनेपर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनावेंगे। हे मूर्ख! सुन, भेद उसीके मनमें पड़ सकता है, (भेदनीति उसीपर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदयमें श्रीरघुवीर न हों॥५॥
दो०- हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।
अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस॥२१॥
अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस॥२१॥
सच है, मैं तो कुलका नाश करने वाला हूँ और हे रावण! तम कुल के रक्षक हो। अंधे-बहरे भी ऐसी बात नहीं कहते, तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान हैं !॥ २१॥
सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई।
चाहत जासु चरन सेवकाई।
तासु दूत होइ हम कुल बोरा।
अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा॥
चाहत जासु चरन सेवकाई।
तासु दूत होइ हम कुल बोरा।
अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा॥
शिव, ब्रह्मा [आदि] देवता और मुनियोंके समुदाय जिनके चरणोंकी सेवा [करना चाहते हैं, उनका दूत होकर मैंने कुलको डुबा दिया? अरे ऐसी बुद्धि होनेपर भी तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता?॥१॥
सुनि कठोर बानी कपि केरी।
कहत दसानन नयन तरेरी॥
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ।
नीति धर्म मैं जानत अहऊँ।
कहत दसानन नयन तरेरी॥
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ।
नीति धर्म मैं जानत अहऊँ।
वानर (अंगद) की कठोर वाणी सुनकर रावण आँखें तरेरकर (तिरछी करके) बोला-अरे दुष्ट ! मैं तेरे सब कठोर वचन इसीलिये सह रहा हूँ कि मैं नीति और धर्मको जानता हूँ (उन्हींकी रक्षा कर रहा हूँ)॥२॥
कह कपि धर्मसीलता तोरी।
हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी॥
देखी नयन दूत रखवारी।
बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी॥
हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी॥
देखी नयन दूत रखवारी।
बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी॥
अंगदने कहा---तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है। [वह यह कि] तुमने परायी स्त्रीकी चोरी की है! और दूतकी रक्षाकी बात तो अपनी आँखोंसे देख ली। ऐसे धर्मके व्रतको धारण (पालन) करनेवाले तुम डूबकर मर नहीं जाते!॥ ३॥
कान नाक बिनु भगिनि निहारी।
छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी॥
धर्मसीलता तव जग जागी।
पावा दरसु हमहुँ बड़भागी॥
छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी॥
धर्मसीलता तव जग जागी।
पावा दरसु हमहुँ बड़भागी॥
नाक-कानसे रहित बहिनको देखकर तमने धर्म विचारकर ही तो क्षमा कर दिया था! तुम्हारी धर्मशीलता जग-जाहिर है। मैं भी बड़ा भाग्यवान् हूँ, जो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया?॥४॥
दो०- जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु।
लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु॥ २२ (क)॥
लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु॥ २२ (क)॥
[रावणने कहा-] अरे जड जन्तु वानर ! व्यर्थ बक-बक न कर; अरे मूर्ख ! मेरी भुजाएँ तो देख। ये सब लोकपालोंके विशाल बलरूपी चन्द्रमाको ग्रसनेके लिये राहु हैं।। २२ (क)॥
पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास।
सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास॥२२ (ख)॥
सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास॥२२ (ख)॥
फिर [तूने सुना ही होगा कि] आकाशरूपी तालाबमें मेरी भुजाओंरूपी कमलोंपर बसकर शिवजीसहित कैलास हंसके समान शोभाको प्राप्त हुआ था!॥ २२ (ख)॥
तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद।
मो सन भिरिहि कवन जोधा बद।।
तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना।
अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥
मो सन भिरिहि कवन जोधा बद।।
तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना।
अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥
अरे अंगद! सुन; तेरी सेनामें बता, ऐसा कौन योद्धा है जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्रीके वियोगमें बलहीन हो रहा है। और उसका छोटा भाई उसीके दुःखसे दुःखी और उदास है॥१॥
तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ।
अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा।
सो कि होइ अब समरारूढ़ा।
अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा।
सो कि होइ अब समरारूढ़ा।
तुम और सुग्रीव, दोनों [नदी] तटके वृक्ष हो। [रहा] मेरा छोटा भाई विभीषण, [सो] वह भी बड़ा डरपोक है। मन्त्री जाम्बवान बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाई में क्या चढ़ (उद्यत हो) सकता है ?॥ २॥
सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला।
है कपि एक महा बलसीला॥
आवा प्रथम नगरु जेहिं जारा।
सुनत बचन कह बालिकुमारा॥
है कपि एक महा बलसीला॥
आवा प्रथम नगरु जेहिं जारा।
सुनत बचन कह बालिकुमारा॥
नल-नील तो शिल्प-कर्म जानते हैं (वे लड़ना क्या जानें ?)। हाँ, एक वानर जरूर महान् बलवान् है, जो पहले आया था, और जिसने लङ्का जलायी थी। यह वचन सुनते ही बालिपुत्र अंगदने कहा-॥३॥
सत्य बचन कहु निसिचर नाहा।
साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा।।
रावन नगर अल्प कपि दहई।
सुनि अस बचन सत्य को कहई।
साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा।।
रावन नगर अल्प कपि दहई।
सुनि अस बचन सत्य को कहई।
हे राक्षसराज! सच्ची बात कहो! क्या उस वानरने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया? रावण [जैसे जगद्विजयी योद्धा] का नगर एक छोटे-से वानरने जला दिया। ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगा?॥ ४॥
जो अति सुभट सराहेहु रावन।
सो सुग्रीव केर लघु धावन॥
चलइ बहुत सो बीर न होई।
पठवा खबरि लेन हम सोई॥
सो सुग्रीव केर लघु धावन॥
चलइ बहुत सो बीर न होई।
पठवा खबरि लेन हम सोई॥
हे रावण! जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा-सा दौड़कर चलने वाला हरकारा है। वह बहुत चलता है, वीर नहीं है। उसको तो हमने [केवल] खबर लेने के लिये भेजा था॥५॥
दो०- सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥ २३ (क)॥
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥ २३ (क)॥
क्या सचमुच ही उस वानरने प्रभुकी आज्ञा पाये बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है, इसी डरसे वह लौटकर सुग्रीवके पास नहीं गया और कहीं छिप रहा!॥ २३ (क)॥
सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह॥२३ (ख)।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह॥२३ (ख)।
हे रावण! तुम सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेनामें कोई भी ऐसा नहीं है जो तुमसे लड़नेमें शोभा पाये।। २३ (ख)॥
प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥२३ (ग)॥
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥२३ (ग)॥
प्रीति और वैर बराबरी वाले से ही करना चाहिये, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेढकों को मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा?॥ २३ (ग)।
जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधे बड़ दोष।
तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥२३ (घ)॥
तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥२३ (घ)॥
यद्यपि तुम्हें मारनेमें श्रीरामजीकी लघुता है और बड़ा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रियजातिका क्रोध बड़ा कठिन होता है।। २३ (घ)॥
बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस॥२३ (ङ)॥
प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस॥२३ (ङ)॥
वक्रोक्तिरूपी धनुषसे वचनरूपी बाण मारकर अंगदने शत्रुका हृदय जला दिया। वीर रावण उन बाणोंको मानो प्रत्युत्तररूपी सँडसियोंसे निकाल रहा है॥२३ (ङ)॥
हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक॥२३ (च)॥
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक॥२३ (च)॥
तब रावण हँसकर बोला-बंदरमें यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायोंसे भला करनेकी चेष्टा करता है॥ २३ (च)॥
धन्य कीस जो निज प्रभु काजा।
जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥
नाचि कूदि करि लोग रिझाई।
पति हित करइ धर्म निपुनाई।
जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥
नाचि कूदि करि लोग रिझाई।
पति हित करइ धर्म निपुनाई।
बंदरको धन्य है, जो अपने मालिकके लिये लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता है। नाच कूदकर, लोगोंको रिझाकर, मालिकका हित करता है। यह उसके धर्मकी निपुणता है॥ १॥
अंगद स्वामिभक्त तव जाती।
प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥
मैं गुन गाहक परम सुजाना।
तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥
प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥
मैं गुन गाहक परम सुजाना।
तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥
हे अंगद! तेरी जाति स्वामिभक्त है। [फिर भला] तू अपने मालिकके गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा? मैं गुणग्राहक (गुणोंका आदर करनेवाला) और परम सुजान (समझदार) हूँ, इसीसे तेरी जली-कटी बक-बकपर कान (ध्यान) नहीं देता।। २।।
कह कपि तव गुन गाहकताई।
सत्य पवनसुत मोहि सुनाई।
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा।
तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥
सत्य पवनसुत मोहि सुनाई।
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा।
तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥
अंगदने कहा-तुम्हारी सच्ची गुणग्राहकता तो मुझे हनुमानने सुनायी थी। उसने अशोकवनको विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्रको मारकर नगरको जला दिया था। तो भी [तुमने अपनी गुणग्राहकताके कारण यही समझा कि] उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया॥३॥
सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई।
दसकंधर मैं कोन्हि ढिठाई।
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा।
तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥
दसकंधर मैं कोन्हि ढिठाई।
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा।
तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥
तुम्हारा वही सुन्दर स्वभाव विचारकर, हे दशग्रीव! मैंने कुछ धृष्टता की है। हनुमानने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है।॥ ४॥
जौं असि मति पितु खाए कीसा।
कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही।
अबहीं समुझि परा कछु मोही।
कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही।
अबहीं समुझि परा कछु मोही।
[रावण बोला-] अरे वानर ! जब तेरी ऐसी बुद्धि है तभी तो तू बापको खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अंगदने कहा-पिताको खाकर फिर तुमको भी खा डालता। परन्तु अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझमें आ गयी!॥ ५॥
बालि बिमल जस भाजन जानी।
हतउँ न तोहि अधम अभिमानी।
कहु रावन रावन जग केते।
मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥
हतउँ न तोहि अधम अभिमानी।
कहु रावन रावन जग केते।
मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥
अरे नीच अभिमानी! बालिके निर्मल यशका पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। रावण! यह तो बता कि जगतमें कितने रावण हैं? मैंने जितने रावण अपने कानोंसे सुन रखे हैं, उन्हें सुन-॥६॥
बलिहि जितन एक गयउ पताला।
राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई।
दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई॥
राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई।
दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई॥
एक रावण तो बलिको जीतने पातालमें गया था, तब बच्चोंने उसे घुड़सालमें बाँध रखा। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बलिको दया लगी, तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया॥७॥
एक बहोरि सहसभुज देखा।
धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा॥
कौतुक लागि भवन लै आवा।
सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा॥
धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा॥
कौतुक लागि भवन लै आवा।
सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा॥
फिर एक रावणको सहस्रबाहुने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक विशेष प्रकारके (विचित्र) जन्तुकी तरह [समझकर] पकड़ लिया। तमाशेके लिये वह उसे घर ले आया। तब पुलस्त्य मुनिने जाकर उसे छुड़ाया॥८॥
दो०- एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख॥२४॥
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख॥२४॥
एक रावण की बात कहने में तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है-वह [बहुत दिनोंतक] बालिकी काँखमें रहा था। इनमें से तुम कौन-से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ॥२४॥
सुनु सठ सोइ रावन बलसीला।
हरगिरि जान जासु भुज लीला॥
जान उमापति जासु सुराई।
पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई।
हरगिरि जान जासु भुज लीला॥
जान उमापति जासु सुराई।
पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई।
[रावणने कहा--] अरे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान् रावण हूँ जिसकी भुजाओंकी लीला (करामात) कैलास पर्वत जानता है। जिसकी शूरता उमापति महादेवजी जानते हैं, जिन्हें अपने सिररूपी पुष्प चढ़ा-चढ़ाकर मैंने पूजा था॥१॥
सिर सरोज निज करन्हि उतारी।
पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी॥
भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला।
सठ अजहूँ जिन्ह के उर साला॥
पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी॥
भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला।
सठ अजहूँ जिन्ह के उर साला॥
सिररूपी कमलोंको अपने हाथोंसे उतार-उतारकर मैंने अगणित बार त्रिपुरारि शिवजीकी पूजा की है। अरे मूर्ख! मेरी भुजाओंका पराक्रम दिक्पाल जानते हैं, जिनके हृदयमें वह आज भी चुभ रहा है॥२॥
जानहिं दिग्गज उर कठिनाई।
जब जब भिरउँ जाइ बरिआई॥
जिन्ह के दसन कराल न फूटे।
उर लागत मूलक इव टूटे॥
जब जब भिरउँ जाइ बरिआई॥
जिन्ह के दसन कराल न फूटे।
उर लागत मूलक इव टूटे॥
दिग्गज (दिशाओंके हाथी) मेरी छातीकी कठोरताको जानते हैं। जिनके भयानक दाँत, जब-जब जाकर मैं उनसे जबरदस्ती भिड़ा, मेरी छातीमें कभी नहीं फूटे (अपना चिह्न भी नहीं बना सके), बल्कि मेरी छातीसे लगते ही वे मूलीकी तरह टूट गये॥३॥
जासु चलत डोलति इमि धरनी।
चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी॥
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी।
सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी॥
चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी॥
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी।
सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी॥
जिसके चलते समय पृथ्वी इस प्रकार हिलती है जैसे मतवाले हाथीके चढ़ते समय छोटी नाव! मैं वही जगतप्रसिद्ध प्रतापी रावण हूँ। अरे झूठी बकवाद करनेवाले! क्या तूने मुझको कानोंसे कभी नहीं सुना?॥४॥
दो०- तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान॥२५॥
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान॥२५॥
उस (महान् प्रतापी और जगतप्रसिद्ध) रावणको (मुझे) तूछोटा कहता है और मनुष्यकी बड़ाई करता है? अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर ! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया॥ २५॥
सुनि अंगद सकोप कह बानी।
बोलु सँभारि अधम अभिमानी।।
सहसबाहु भुज गहन अपारा।
दहन अनल सम जासु कुठारा॥
बोलु सँभारि अधम अभिमानी।।
सहसबाहु भुज गहन अपारा।
दहन अनल सम जासु कुठारा॥
रावणके ये वचन सुनकर अंगद क्रोधसहित वचन बोले-अरे नीच अभिमानी! सँभालकर (सोच-समझकर) बोल। जिनका फरसा सहस्रबाहुकी भुजाओंरूपी अपार वनको जलानेके लिये अग्निके समान था,॥१॥
जासु परसु सागर खर धारा।
बूड़े नृप अगनित बहु बारा॥
तासु गर्ब जेहि देखत भागा।
सो नर क्यों दससीस अभागा॥
बूड़े नृप अगनित बहु बारा॥
तासु गर्ब जेहि देखत भागा।
सो नर क्यों दससीस अभागा॥
जिनके फरसारूपी समुद्रकी तीव्र धारामें अनगिनत राजा अनेकों बार डूब गये, उन परशुरामजीका गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनुष्य क्योंकर हैं?॥२॥
राम मनुज कस रे सठ बंगा।
धन्वी कामु नदी पुनि गंगा॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा।
अन्न दान अरु रस पीयूषा॥
धन्वी कामु नदी पुनि गंगा॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा।
अन्न दान अरु रस पीयूषा॥
क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड! श्रीरामचन्द्रजी मनुष्य हैं ? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गङ्गाजी क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है ? और अमृत क्या रस है?॥३॥
बैनतेय खग अहि सहसानन।
चिंतामनि पुनि उपल दसानन।
सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा।
लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा।
चिंतामनि पुनि उपल दसानन।
सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा।
लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा।
गरुड़जी क्या पक्षी हैं? शेषजी क्या सर्प हैं ? अरे रावण! चिन्तामणि भी क्या पत्थर है? अरे ओ मूर्ख! सुन, वैकुण्ठ भी क्या लोक है? और श्रीरघुनाथजीकी अखण्ड भक्ति क्या [और लाभों-जैसा ही] लाभ है?॥४॥
दो०- सेन सहित तव मान मथि बन उजारि पुर जारि।
कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि॥२६॥
कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि॥२६॥
सेनासमेत तेरा मान मथकर, अशोकवनको उजाड़कर, नगरको जलाकर और तेरे पुत्रको मारकर जो लौट गये [तू उनका कुछ भी न बिगाड़ सका], क्यों रे दुष्ट ! वे हनुमानजी क्या वानर हैं ?॥ २६॥
सुनु रावन परिहरि चतुराई।
भजसि न कृपासिंधु रघुराई।
जौं खल भएसि राम कर द्रोही।
ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥
भजसि न कृपासिंधु रघुराई।
जौं खल भएसि राम कर द्रोही।
ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥
अरे रावण! चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपा के समुद्र श्रीरघुनाथजी का तू भजन क्यों नहीं करता? अरे दुष्ट ! यदि तू श्रीरामजी का वैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं बचा सकेंगे॥१॥
मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला।
राम बयर अस होइहि हाला॥
तव सिर निकर कपिन्ह के आगें।
परिहहिं धरनि राम सर लागें।
राम बयर अस होइहि हाला॥
तव सिर निकर कपिन्ह के आगें।
परिहहिं धरनि राम सर लागें।
हे मूढ़ ! व्यर्थ गाल न मार (डींग न हाँक)। श्रीरामजी से वैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा कि तेरे सिर-समूह श्रीरामजीके बाण लगते ही वानरोंके आगे पृथ्वीपर पड़ेंगे,॥२॥
ते तव सिर कंदुक सम नाना।
खेलिहहिं भालु कीस चौगाना॥
जबहिं समर कोपिहि रघुनायक।
छुटिहहिं अति कराल बहु सायक।
खेलिहहिं भालु कीस चौगाना॥
जबहिं समर कोपिहि रघुनायक।
छुटिहहिं अति कराल बहु सायक।
और रीछ-वानर तेरे उन गेंदके समान अनेकों सिरोंसे चौगान खेलेंगे। जब श्रीरघुनाथजी युद्ध में कोप करेंगे और उनके अत्यन्त तीक्ष्ण बहुत-से बाण छूटेंगे,॥३॥
तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा।
अस बिचारि भजु राम उदारा॥
सुनत बचन रावन परजरा।
जरत महानल जनु घृत परा॥
अस बिचारि भजु राम उदारा॥
सुनत बचन रावन परजरा।
जरत महानल जनु घृत परा॥
तब क्या तेरा ऐसा गाल चलेगा? ऐसा विचारकर उदार (कृपालु) श्रीरामजीको भज। अंगदके ये वचन सुनकर रावण बहुत अधिक जल उठा। मानो जलती हुई प्रचण्ड अग्निमें घी पड़ गया हो॥४॥
दो०- कुंभकरन अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि।
मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि॥२७॥
मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि॥२७॥
[वह बोला-अरे मूर्ख!] कुम्भकर्ण-ऐसा मेरा भाई है, इन्द्रका शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद मेरा पुत्र है! और मेरा पराक्रम तो तूने सुना ही नहीं कि मैंने सम्पूर्ण जड चेतन जगतको जीत लिया है!॥ २७॥
सठ साखामृग जोरि सहाई।
बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई॥
नाघहिं खग अनेक बारीसा।
सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा॥
बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई॥
नाघहिं खग अनेक बारीसा।
सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा॥
रे दुष्ट! वानरोंकी सहायता जोड़कर रामने समुद्र बाँध लिया; बस, यही उसकी प्रभुता है। समुद्रको तो अनेकों पक्षी भी लाँघ जाते हैं। पर इसीसे वे सभी शूरवीर नहीं हो जाते। अरे मूर्ख बंदर! सुन-॥१॥
मम भुज सागर बल जल पूरा।
जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा॥
बीस पयोधि अगाध अपारा।
को अस बीर जो पाइहि पारा॥
जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा॥
बीस पयोधि अगाध अपारा।
को अस बीर जो पाइहि पारा॥
मेरी एक-एक भुजारूपी समुद्र बलरूपी जलसे पूर्ण है, जिसमें बहुत-से शूरवीर देवता और मनुष्य डूब चुके हैं। [बता,] कौन ऐसा शूरवीर है जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समुद्रोंका पार पा जायगा?॥२॥
दिगपालन्ह मैं नीर भरावा।
भूप सुजस खल मोहि सुनावा॥
जौं पै समर सुभट तव नाथा।
पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा।
भूप सुजस खल मोहि सुनावा॥
जौं पै समर सुभट तव नाथा।
पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा।
अरे दुष्ट! मैंने दिक्पालोंतकसे जल भरवाया और तू एक राजाका मुझे सुयश सुनाता है! यदि तेरा मालिक, जिसकी गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, संग्राममें लड़नेवाला योद्धा है-॥३॥
तौ बसीठ पठवत केहि काजा।
रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा॥
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू।
पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू॥
रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा॥
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू।
पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू॥
तो [फिर] वह दूत किसलिये भेजता है? शत्रुसे प्रीति (सन्धि) करते उसे लाज नहीं आती? [पहले] कैलासका मथन करनेवाली मेरी भुजाओंको देख। फिर अरे मूर्ख वानर! अपने मालिककी सराहना करना॥४॥
दो०- सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस॥२८॥
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस॥२८॥
रावणके समान शूरवीर कौन है? जिसने अपने ही हाथोंसे सिर काट-काटकर अत्यन्त हर्षके साथ बहुत बार उन्हें अग्निमें होम दिया! स्वयं गौरीपति शिवजी इस बातके साक्षी हैं।॥ २८॥
जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला।
बिधि के लिखे अंक निज भाला॥
नर के कर आपन बध बाँची।
हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची।
बिधि के लिखे अंक निज भाला॥
नर के कर आपन बध बाँची।
हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची।
मस्तकोंके जलते समय जब मैंने अपने ललाटोंपर लिखे हुए विधाताके अक्षर देखे, तब मनुष्यके हाथसे अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाताकी वाणी (लेखको) असत्य जानकर मैं हँसा॥१॥
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें।
लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें॥
आन बीर बल सठ मम आगें।
पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागें।
लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें॥
आन बीर बल सठ मम आगें।
पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागें।
उस बातको समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मनमें डर नहीं है। [क्योंकि मैं समझता हूँ कि] बूढ़े ब्रह्माने बुद्धिभ्रमसे ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीरका बल कहता है !॥ २॥
कह अंगद सलज्ज जग माहीं।
रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥
लाजवंत तव सहज सुभाऊ।
निज मुख निज गुन कहसिन काऊ॥
रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥
लाजवंत तव सहज सुभाऊ।
निज मुख निज गुन कहसिन काऊ॥
अंगदने कहा-अरे रावण! तेरे समान लज्जावान् जगतमें कोई नहीं है। लज्जाशीलता तो तेरा सहज स्वभाव ही है। तू अपने मुँहसे अपने गुण कभी नहीं कहता॥३॥
सिर अरु सैल कथा चित रही।
ताते बार बीस तें कही।
सो भुजबल राखेहु उर घाली।
जीतेहु सहसबाहु बलि बाली।
ताते बार बीस तें कही।
सो भुजबल राखेहु उर घाली।
जीतेहु सहसबाहु बलि बाली।
सिर काटने और कैलास उठानेकी कथा चित्तमें चढ़ी हुई थी, इससे तूने उसे बीसों बार कहा। भुजाओंके उस बलको तो तूने हृदयमें ही टाल (छिपा) रखा है, जिससे तूने सहस्रबाहु, बलि और बालिको जीता था॥४॥
सुनु मतिमंद देहि अब पूरा।
काटें सीस कि होइअ सूरा।
इंद्रजालि कहुँ कहिअ न बीरा।
काटइ निज कर सकल सरीरा॥
काटें सीस कि होइअ सूरा।
इंद्रजालि कहुँ कहिअ न बीरा।
काटइ निज कर सकल सरीरा॥
अरे मन्दबुद्धि ! सुन, अब बस कर। सिर काटनेसे भी क्या कोई शूरवीर हो जाता है ? इन्द्रजाल रचनेवालेको वीर नहीं कहा जाता, यद्यपि वह अपने ही हाथों अपना सारा शरीर काट डालता है !॥५॥
दो०- जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बंद।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद॥२९॥
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद॥२९॥
अरे मन्दबुद्धि ! समझकर देख। पतंगे मोहवश आगमें जल मरते हैं, गदहोंके झुंड बोझ लादकर चलते हैं: पर इस कारण वे शूरवीर नहीं कहलाते॥ २९॥
अब जनि बतबढ़ाव खल करही।
सुनु मम बचन मान परिहरही।
दसमुख मैं न बसीठी आयउँ।
अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥
सुनु मम बचन मान परिहरही।
दसमुख मैं न बसीठी आयउँ।
अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥
अरे दुष्ट ! अब बतबढ़ाव मत कर; मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूतकी तरह [सन्धि करने] नहीं आया हूँ। श्रीरघुवीरने ऐसा विचारकर मुझे भेजा है-॥ १॥
बार बार अस कहइ कृपाला।
नहिं गजारि जसु बधे सृकाला॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे।
सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥
नहिं गजारि जसु बधे सृकाला॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे।
सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥
कृपालु श्रीरामजी बार-बार ऐसा कहते हैं कि स्यार के मारने से सिंह को यश नहीं मिलता। अरे मूर्ख! प्रभुके [उन] वचनों को मन में समझकर (याद करके) ही मैंने तेरे कठोर वचन सहे हैं॥२॥
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा।
लै जातेउँ सीतहि बरजोरा॥
जानेउँ तव बल अधम सुरारी।
सूनें हरि आनिहि परनारी॥
लै जातेउँ सीतहि बरजोरा॥
जानेउँ तव बल अधम सुरारी।
सूनें हरि आनिहि परनारी॥
नहीं तो तेरे मुँह तोड़कर मैं सीताजीको जबरदस्ती ले जाता। अरे अधम! देवताओंके शत्रु ! तेरा बल तो मैंने तभी जान लिया जब तू सूनेमें परायी स्त्रीको हर (चुरा) लाया॥३॥
नै निसिचर पति गर्ब बहूता।
मैं रघुपति सेवक कर दूता॥
जौं न राम अपमानहिं डरऊँ।
तोहि देखत अस कौतुक करऊँ।
मैं रघुपति सेवक कर दूता॥
जौं न राम अपमानहिं डरऊँ।
तोहि देखत अस कौतुक करऊँ।
तू राक्षसोंका राजा और बड़ा अभिमानी है। परन्तु मैं तो श्रीरघुनाथजीके सेवक (सुग्रीव) का दूत (सेवकका भी सेवक) हूँ। यदि मैं श्रीरामजीके अपमानसे न डरूँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा करूँ कि॥४॥
दो०- तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ॥३०॥
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ॥३०॥
तुझे जमीनपर पटककर, तेरी सेनाका संहारकर और तेरे गाँवको चौपट [नष्ट भ्रष्ट] करके, अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियोंसहित जानकीजीको ले जाऊँ॥३०॥
जौं अस करौं तदपि न बड़ाई।
मुएहि बधे नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा।
यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुएको मारने में कुछ भी
पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यन्त मूढ़, अति
दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा,॥१॥ मुएहि बधे नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा।
सदा रोगबस संतत क्रोधी।
बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥
तनु पोषक निंदक अघ खानी।
जीवत सव सम चौदह प्रानी।
बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥
तनु पोषक निंदक अघ खानी।
जीवत सव सम चौदह प्रानी।
नित्यका रोगी, निरन्तर क्रोधयुक्त रहनेवाला, भगवान विष्णुसे विमुख, वेद और संतोंका विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करनेवाला, परायी निन्दा करनेवाला और पापकी खान (महान् पापी)-ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदेके समान हैं॥२॥
अस बिचारि खल बधउँ न तोही।
अब जनि रिस उपजावसि मोही॥
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा।
अधर दसन दसि मीजत हाथा॥
अब जनि रिस उपजावसि मोही॥
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा।
अधर दसन दसि मीजत हाथा॥
अरे दुष्ट ! ऐसा विचारकर मैं तुझे नहीं मारता। अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर (मुझे गुस्सा न दिला)। अङ्गदके वचन सुनकर राक्षसराज रावण दाँतोंसे होठ काटकर, क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला-॥३॥
रे कपि अधम मरन अब चहसी।
छोटे बदन बात बड़ि कहसी॥
कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें।
बल प्रताप बुधि तेज न ताकें।
छोटे बदन बात बड़ि कहसी॥
कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें।
बल प्रताप बुधि तेज न ताकें।
अरे नीच बंदर! अब तू मरना ही चाहता है! इसीसे छोटे मुँह बड़ी बात कहता है। अरे मूर्ख बंदर ! तू जिसके बलपर कड़ए वचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है।॥ ४॥
दो०- अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास॥३१ (क)॥
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास॥३१ (क)॥
उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो पिताने वनवास दे दिया। उसे एक तो वह (उसका) दुःख, उसपर युवती स्त्रीका विरह और फिर रात-दिन मेरा डर बना रहता है॥३१ (क)॥
जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक॥३१ (ख)॥
खाहिं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक॥३१ (ख)॥
जिनके बलका तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्योंको तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं। अरे मूढ़ ! जिद्द छोड़कर समझ (विचार कर)॥३१ (ख)॥
जब तेहिं कीन्हि राम कै निंदा।
क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा।
हरि हर निंदा सुनइ जो काना।
होइ पाप गोघात समाना॥
क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा।
हरि हर निंदा सुनइ जो काना।
होइ पाप गोघात समाना॥
जब उसने श्रीरामजीकी निन्दा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यन्त क्रोधित हुए। क्योंकि [शास्त्र ऐसा कहते हैं कि] जो अपने कानोंसे भगवान विष्णु और शिवकी निन्दा सुनता है, उसे गोवधके समान पाप होता है।। १॥
कटकटान कपिकुंजर भारी।
दुहु भुजदंड तमकि महि मारी॥
डोलत धरनि सभासद खसे।
चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥
दुहु भुजदंड तमकि महि मारी॥
डोलत धरनि सभासद खसे।
चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥
वानरश्रेष्ठ अंगद बहुत जोरसे कटकटाये (शब्द किया) और उन्होंने तमककर (जोरसे) अपने दोनों भुजदण्डोंको पृथ्वीपर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, [जिससे बैठे हुए] सभासद् गिर पड़े और भयरूपी पवन (भूत) से ग्रस्त होकर भाग चले॥२॥
गिरत सँभारि उठा दसकंधर।
भूतल परे मुकुट अति सुंदर॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे।
कछु अंगद प्रभु पास पबारे॥
भूतल परे मुकुट अति सुंदर॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे।
कछु अंगद प्रभु पास पबारे॥
रावण गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यन्त सुन्दर मुकुट पृथ्वीपर गिर पड़े। कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरोंपर सुधारकर रख लिया और कुछ अंगदने उठाकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके पास फेंक दिये॥३॥
आवत मुकुट देखि कपि भागे।
दिनहीं लूक परन बिधि लागे।
की रावन करि कोप चलाए।
कुलिस चारि आवत अति धाए।
दिनहीं लूक परन बिधि लागे।
की रावन करि कोप चलाए।
कुलिस चारि आवत अति धाए।
मुकुटोंको आते देखकर वानर भागे। [सोचने लगे] विधाता! क्या दिनमें ही उल्कापात होने लगा (तारे टूटकर गिरने लगे)? अथवा क्या रावणने क्रोध करके चार वज्र चलाये हैं, जो बड़े धायेके साथ (वेगसे) आ रहे हैं?॥४॥
कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू।
लूक न असनि केतु नहिं राहू॥
ए किरीट दसकंधर केरे।
आवत बालितनय के प्रेरे।
लूक न असनि केतु नहिं राहू॥
ए किरीट दसकंधर केरे।
आवत बालितनय के प्रेरे।
प्रभुने [उनसे] हँसकर कहा-मनमें डरो नहीं। ये न उल्का हैं, न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई! ये तो रावणके मुकुट हैं; जो बालिपुत्र अंगदके फेंके हुए आ रहे हैं॥५॥
दो०- तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास॥३२ (क)॥
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास॥३२ (क)॥
पवनपुत्र श्रीहनुमानजीने उछलकर उनको हाथसे पकड़ लिया और लाकर प्रभुके पास रख दिया।रीछ और वानर तमाशा देखने लगे। उनका प्रकाश सूर्यके समान था॥३२ (क)।
उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ॥३२ (ख)॥
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ॥३२ (ख)॥
वहाँ (सभामें) क्रोधयुक्त रावण सबसे क्रोधित होकर कहने लगा कि-बंदरको पकड़ लो और पकड़कर मार डालो। अंगद यह सुनकर मुसकराने लगे॥ ३२ (ख)॥
एहि बधि बेगि सुभट सब धावहु।
खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥
मर्कटहीन करहु महि जाई।
जिअत धरहु तापस द्वौ भाई।
खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥
मर्कटहीन करहु महि जाई।
जिअत धरहु तापस द्वौ भाई।
[रावण फिर बोला-] इसे मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहाँ-कहीं रीछ वानरोंको पाओ, वहीं खा डालो। पृथ्वीको बंदरोंसे रहित कर दो और जाकर दोनों तपस्वी भाइयों (राम-लक्ष्मण) को जीते-जी पकड़ लो॥१॥
पनि सकोप बोलेउ जुबराजा।
गाल बजावत तोहि न लाजा।।
मरु गर काटि निलज कुलघाती।
बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती।
गाल बजावत तोहि न लाजा।।
मरु गर काटि निलज कुलघाती।
बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती।
[रावणके ये कोपभरे वचन सुनकर] तब युवराज अंगद क्रोधित होकर बोले तुझे गाल बजाते लाज नहीं आती! अरे निर्लज्ज ! अरे कुलनाशक! गला काटकर (आत्महत्या करके) मर जा! मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती !॥२॥
रे त्रिय चोर कुमारग गामी।
खल मल रासि मंदमति कामी॥
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा।
भएसि कालबस खल मनुजादा॥
खल मल रासि मंदमति कामी॥
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा।
भएसि कालबस खल मनुजादा॥
अरे स्त्रीके चोर! अरे कुमार्गपर चलनेवाले! अरे दुष्ट, पापकी राशि, मन्द बुद्धि और कामी! तू सन्निपातमें क्या दुर्वचन बक रहा है? अरे दुष्ट राक्षस! तू कालके वश हो गया है !।। ३॥
याको फलु पावहिगो आगें।
बानर भालु चपेटन्हि लागें॥
रामु मनुज बोलत असि बानी।
गिरहिं न तव रसना अभिमानी॥
बानर भालु चपेटन्हि लागें॥
रामु मनुज बोलत असि बानी।
गिरहिं न तव रसना अभिमानी॥
इसका फल तू आगे वानर और भालुओंके चपेटे लगनेपर पावेगा। राम मनुष्य हैं, ऐसा वचन बोलते ही, अरे अभिमानी! तेरी जीभें नहीं गिर पड़ती?॥ ४॥
गिरिहहिं रसना संसय नाहीं।
सिरन्हि समेत समर महि माहीं।।
सिरन्हि समेत समर महि माहीं।।
इसमें सन्देह नहीं है कि तेरी जीभें [अकेले नहीं वरं] सिरोंके साथ रणभूमिमें गिरेंगी।॥ ५॥
सो०-सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहुँलोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़॥३३ (क)॥
बीसहुँलोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़॥३३ (क)॥
रे दशकन्ध! जिसने एक ही बाणसे बालिको मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे कुजाति, अरे जड! बीस आँखें होनेपर भी तू अन्धा है। तेरे जन्मको धिक्कार है॥ ३३ (क)॥
तव सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउँतोहि तेहि त्रास कटुजल्पक निसिचर अधम॥३३ (ख)॥
तजउँतोहि तेहि त्रास कटुजल्पक निसिचर अधम॥३३ (ख)॥
श्रीरामचन्द्रजीके बाणसमूह तेरे रक्तकी प्याससे प्यासे हैं। [वे प्यासे ही रह जायँगे] इस डरसे, अरे कड़वी बकवाद करनेवाले नीच राक्षस! मैं तुझे छोड़ता हूँ॥ ३३ (ख)॥
मैं तव दसन तोरिबे लायक।
आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक।
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं।
लंका गहि समुद्र महँ बोरौं।
आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक।
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं।
लंका गहि समुद्र महँ बोरौं।
मैं तेरे दाँत तोड़ने में समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? श्रीरघुनाथजीने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि तेरे दसों मुँह तोड़ डालूँ और [तेरी] लङ्काको पकड़कर समुद्रमें डुबा दूँ॥ १॥
गूलरि फल समान तव लंका।
बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका।
मैं बानर फल खात न बारा।
आयसु दीन्ह न राम उदारा॥
बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका।
मैं बानर फल खात न बारा।
आयसु दीन्ह न राम उदारा॥
तेरी लङ्का गूलरके फलके समान है। तुम सब कीड़े उसके भीतर [अज्ञानवश] निडर होकर बस रहे हो। मैं बंदर हूँ, मुझे इस फलको खाते क्या देर थी? पर उदार (कृपालु) श्रीरामचन्द्रजीने वैसी आज्ञा नहीं दी॥ २॥
जुगुति सुनत रावन मुसुकाई।
मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई॥
बालि न कबहुँ गाल अस मारा।
मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा॥
मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई॥
बालि न कबहुँ गाल अस मारा।
मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा॥
अंगदकी युक्ति सुनकर रावण मुसकराया [और बोला-] अरे मूर्ख! बहुत झूठ बोलना तूने कहाँ सीखा? बालिने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा। जान पड़ता है तू तपस्वियोंसे मिलकर लबार हो गया है॥३॥
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा।
जौं न उपारिउँ तव दस जीहा।
समुझि राम प्रताप कपि कोपा।
सभा माझ पन करि पद रोपा॥
जौं न उपारिउँ तव दस जीहा।
समुझि राम प्रताप कपि कोपा।
सभा माझ पन करि पद रोपा॥
[अंगदने कहा-] अरे बीस भुजावाले! यदि तेरी दसों जीभें मैंने नहीं उखाड़ ली तो सचमुच मैं लबार ही हूँ। श्रीरामचन्द्रजीके प्रतापको समझकर (स्मरण करके) अंगद क्रोधित हो उठे और उन्होंने रावणकी सभामें प्रण करके (दृढ़ताके साथ) पैर रोप दिया॥४॥
जौं मम चरन सकसि सठ टारी।
फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥
सनह सभट सब कह दससीसा।
पद गहि धरनि पछारह कीसा॥
फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥
सनह सभट सब कह दससीसा।
पद गहि धरनि पछारह कीसा॥
[और कहा-] अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो श्रीरामजी लौट जायेंगे, मैं सीताजीको हार गया। रावणने कहा-हे सब वीरो! सुनो, पैर पकड़कर बंदरको पृथ्वीपर पछाड़ दो॥५॥
इंद्रजीत आदिक बलवाना।
हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई।
पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई॥
हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई।
पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई॥
इन्द्रजीत (मेघनाद) आदि अनेकों बलवान् योद्धा जहाँ-तहाँसे हर्षित होकर उठे। वे पूरे बलसे बहुत-से उपाय करके झपटते हैं। पर पैर टलता नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थानपर जा बैठ जाते हैं॥६॥
पुनि उठि झपटहिं सुर आराती।
टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी।
मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी॥
टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी।
मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी॥
[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] वे देवताओंके शत्रु (राक्षस) फिर उठकर झपटते हैं। परन्तु हे सर्पोके शत्रु गरुड़जी ! अङ्गदका चरण उनसे वैसे ही नहीं टलता जैसे कुयोगी (विषयी) पुरुष मोहरूपी वृक्षको नहीं उखाड़ सकते॥७॥
दो०- कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरैन कपि-चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ॥३४ (क)॥
झपटहिं टरैन कपि-चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ॥३४ (क)॥
करोड़ों वीर योद्धा जो बलमें मेघनादके समान थे, हर्षित होकर उठे। वे बार बार झपटते हैं, पर वानरका चरण नहीं उठता, तब लज्जाके मारे सिर नवाकर बैठ जाते हैं।। ३४ (क)॥
भूमि न छाँड़त कपि चरन देखत रिपुमद भाग।
कोटि बिज ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग॥३४ (ख)॥
जैसे करोड़ों विघ्न आनेपर भी संतका मन नीतिको नहीं छोड़ता, वैसे ही वानर (अंगद)
का चरण पृथ्वीको नहीं छोड़ता। यह देखकर शत्रु (रावण) का मद दूर हो गया!॥३४ (ख)॥
कोटि बिज ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग॥३४ (ख)॥
कपि बल देखि सकल हियँ हारे।
उठा आपु कपि कें परचारे॥
गहत चरन कह बालिकुमारा।
मम पद गहें न तोर उबारा॥
उठा आपु कपि कें परचारे॥
गहत चरन कह बालिकुमारा।
मम पद गहें न तोर उबारा॥
अङ्गदका बल देखकर सब हृदयमें हार गये। तब अङ्गदके ललकारनेपर रावण स्वयं उठा। जब वह अङ्गदका चरण पकड़ने लगा, तब बालिकुमार अङ्गदने कहा मेरा चरण पकड़नेसे तेरा बचाव नहीं होगा!॥१॥
गहसि न राम चरन सठ जाई।
सुनत फिरा मन अति सकुचाई।
भयउ तेजहत श्री सब गई।
मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥
सुनत फिरा मन अति सकुचाई।
भयउ तेजहत श्री सब गई।
मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥
अरे मूर्ख! तू जाकर श्रीरामजीके चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मनमें बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे मध्याह्नमें चन्द्रमा दिखायी देता है॥२॥
सिंघासन बैठेउ सिर नाई।
मानहुँ संपति सकल गँवाई।
जगदातमा प्रानपति रामा।
तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा।
मानहुँ संपति सकल गँवाई।
जगदातमा प्रानपति रामा।
तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा।
वह सिर नीचा करके सिंहासनपर जा बैठा। मानो सारी सम्पत्ति गँवाकर बैठा हो। श्रीरामचन्द्रजी जगतभरके आत्मा और प्राणोंके स्वामी हैं। उनसे विमुख रहनेवाला शान्ति कैसे पा सकता है ?॥३॥
उमा राम की भृकुटि बिलासा।
होइ बिस्व पुनि पावइ नासा।।
तुन ते कुलिस कुलिस तुन करई।
तासु दूत पन कह किमि टरई॥
होइ बिस्व पुनि पावइ नासा।।
तुन ते कुलिस कुलिस तुन करई।
तासु दूत पन कह किमि टरई॥
[शिवजी कहते हैं-] हे उमा ! जिन श्रीरामचन्द्रजीके भ्रूविलास (भौंहके इशारे) से विश्व उत्पन्न होता है और फिर नाशको प्राप्त होता है; जो तृणको वज्र और वज्रको तृण बना देते हैं (अत्यन्त निर्बलको महान् प्रबल और महान् प्रबलको अत्यन्त निर्बल कर देते हैं), उनके दूतका प्रण, कहो, कैसे टल सकता है ?॥४॥
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना।
मान न ताहि कालु निअराना।
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो।
यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥
मान न ताहि कालु निअराना।
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो।
यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥
फिर अंगदने अनेक प्रकारसे नीति कही। पर रावणने नहीं माना; क्योंकि उसका काल निकट आ गया था। शत्रुके गर्वको चूर करके अंगदने उसको प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका सुयश सुनाया और फिर वह राजा बालिका पुत्र यह कहकर चल दिया--॥५॥
हतौँ न खेत खेलाइ खेलाई।
तोहि अबहिं का करौं बड़ाई।
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा।
सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥
तोहि अबहिं का करौं बड़ाई।
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा।
सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥
रणभूमिमें तुझे खेला-खेलाकर न मारूँ तबतक अभी [पहलेसे] क्या बड़ाई करूँ। अंगदने पहले ही (सभामें आनेसे पूर्व ही) उसके पुत्रको मार डाला था। वह संवाद सुनकर रावण दुःखी हो गया॥६॥
जातुधान अंगद पन देखी।
भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥
अंगदका प्रण [सफल] देखकर सब राक्षस भयसे अत्यन्त ही व्याकुल हो गये॥ ७॥ भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥
दो०- रिपुबल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज॥३५ (क)॥
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज॥३५ (क)॥
शत्रुके बलका मर्दन कर, बलकी राशि बालिपुत्र अंगदजीने हर्षित होकर आकर श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमल पकड़ लिये। उनका शरीर पुलकित है और नेत्रोंमें [आनन्दाश्रुओंका] जल भरा है॥ ३५ (क)॥
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