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श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

मन्दोदरी का फिर से रावण को समझाना और श्रीराम की महिमा कहना


सजल नयन कह जुग कर जोरी।
सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥
कंत राम बिरोध परिहरहू।
जानि मनुज जनि हठ मन धरहू॥

नेत्रों में जल भरकर, दोनों हाथ जोड़कर वह [रावण से] कहने लगी-हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिये। हे प्रियतम! श्रीराम से विरोध छोड़ दीजिये। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकड़े रहिये॥४॥

दो०- बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु॥१४॥

मेरे इन वचनों पर विश्वास कीजिये कि वे रघुकुल के शिरोमणि श्रीरामचन्द्रजी विश्वरूप हैं-(यह सारा विश्व उन्हीं का रूप है) वेद जिनके अङ्ग-अङ्गमें लोकोंकी कल्पना करते हैं॥१४॥

पद पाताल सीस अज धामा।
अपर लोक अंग अंग बिश्रामा॥
भृकुटि बिलास भयंकर काला।
नयन दिवाकर कच घन माला॥

पाताल [जिन विश्वरूप भगवान का] चरण है, ब्रह्मलोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अङ्गों पर है। भयङ्कर काल जिनका भृकुटिसंचालन (भौंहों का चलना) है। सूर्य नेत्र है, बादलों का समूह बाल है॥१॥

जासु घ्रान अस्विनीकुमारा।
निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी।
मारुत स्वास निगम निज बानी।

अश्विनीकुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं। दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है॥२॥

अधर लोभ जम दसन कराला।
माया हास बाह दिगपाला॥
आनन अनल अंबुपति जीहा।
उतपति पालन प्रलय समीहा॥

लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत है। माया हँसी है, दिक्पाल भुजाएँ हैं। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है॥३॥

रोम राजि अष्टादस भारा।
अस्थि सैल सरिता नस जारा॥
उदर उदधि अधगो जातना।
जगमय प्रभु का बहु कलपना।

अठारह प्रकार की असंख्य वनस्पतियाँ जिनकी रोमावली हैं, पर्वत अस्थियाँ हैं, नदियाँ नसों का जाल हैं, समुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचे की इन्द्रियाँ हैं। इस प्रकार प्रभु विश्वमय हैं, अधिक कल्पना (ऊहापोह) क्या की जाय?॥४॥

दो०- अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान॥१५ (क)॥

शिव जिनका अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चन्द्रमा मन हैं और महान् (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं चराचररूप भगवान श्रीरामजी ने मनुष्यरूप में निवास किया है॥१५ (क)॥

अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभुसन बयरु बिहाइ।
प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ॥१५ (ख)॥

हे प्राणपति! सुनिये, ऐसा विचारकर प्रभुसे वैर छोड़कर श्रीरघुवीरके चरणों में प्रेम कीजिये, जिससे मेरा सुहाग न जाय॥ १५ (ख)॥

बिहँसा नारि बचन सुनि काना।
अहो मोह महिमा बलवाना॥
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं।
अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥

पत्नी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हँसा [और बोला-] अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान् है! स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं-॥१॥

साहस अनृत चपलता माया।
भय अबिबेक असौच अदाया।
रिपु कर रूप सकल तैं गावा।
अति बिसाल भय मोहि सुनावा॥

साहस, झूठ, चञ्चलता, माया (छल), भय (डरपोकपन), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र (विराट) रूप गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया॥२॥

सो सब प्रिया सहज बस मोरें।
समुझि परा प्रसाद अब तोरें॥
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई।
एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई।

हे प्रिये! वह सब (यह चराचर विश्व तो) स्वभाव से ही मेरे वश में है। तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ पड़ा। हे प्रिये! तेरी चतुराई मैं जान गया। तू इस प्रकार (इसी बहाने) मेरी प्रभुता का बखान कर रही है॥३॥

तव बतकही गूढ मृगलोचनि।
समुझत सुखद सुनत भय मोचनि॥
मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ।
पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।

हे मृगनयनी! तेरी बातें बड़ी गूढ़ (रहस्यभरी) हैं, समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय छुड़ाने वाली हैं। मन्दोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है॥४॥

दो०- एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध।
सहज असंकलंकपति सभाँ गयउ मद अंध॥१६ (क)॥

इस प्रकार [अज्ञानवश] बहुत-से विनोद करते हुए रावणको सबेरा हो गया। तब स्वभावसे ही निडर और घमण्डमें अंधा लंकापति सभामें गया॥१६ (क)॥

सो०- फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥१६ (ख)॥
यद्यपि बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं, तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्माके समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्खके हृदयमें चेत (ज्ञान) नहीं होता।। १६ (ख)॥

इहाँ प्रात जागे रघुराई।
पूछा मत सब सचिव बोलाई।
कहहु बेगि का करिअ उपाई।
जामवंत कह पद सिरु नाई॥

यहाँ (सुबेल पर्वतपर) प्रात:काल श्रीरघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मन्त्रियोंको बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइये, अब क्या उपाय करना चाहिये? जाम्बवानने श्रीरामजीके चरणोंमें सिर नवाकर कहा-॥१॥

सुनु सर्बग्य सकल उर बासी।
बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा।
दूत पठाइअ बालिकुमारा॥

हे सर्वज्ञ (सब कुछ जाननेवाले)! हे सबके हृदयमें बसनेवाले (अन्तर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणोंकी राशि! सुनिये! मैं अपनी बुद्धिके अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगदको दूत बनाकर भेजा जाय!॥२॥

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