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श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

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निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

रावण का युद्ध के लिए प्रस्थान और श्रीरामजी का विजय-रथ तथा वानर-राक्षसों का युद्ध



अस कहि मरुत बेग रथ साजा।
बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥
चले बीर सब अतुलित बली।
जनु कज्जल कै आँधी चली।


ऐसा कहकर उसने पवनके समान तेज चलनेवाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लड़ाईके) बाजे बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान् वीर ऐसे चले मानो काजलकी आँधी चली हो॥४॥

असगुन अमित होहिं तेहि काला।
गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला॥


उस समय असंख्य अशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओंके बलका बड़ा गर्व होनेसे रावण उन्हें गिनता नहीं है॥५॥

छं०- अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥


अत्यन्त गर्वके कारण वह शकुन-अशकुनका विचार नहीं करता। हथियार हाथोंसे गिर रहे हैं। योद्धा रथसे गिर पड़ते हैं। घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिग्घाड़ते हुए भाग जाते हैं। स्यार, गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यन्त भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो कालके दूत हों (मृत्युका सँदेशा सुना रहे हों)।

दो०- ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥७८॥


जो जीवोंके द्रोहमें रत है, मोहके वश हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्नमें भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्तकी शान्ति हो सकती है?॥७८॥

चलेउ निसाचर कटकु अपारा।
चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥
बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना।
बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥


राक्षसोंकी अपार सेना चली। चतुरंगिणी सेनाकी बहुत-सी टुकड़ियाँ हैं। अनेकों प्रकारके वाहन, रथ और सवारियाँ हैं तथा बहुत-से रंगोंकी अनेकों पताकाएँ और ध्वजाएँ हैं॥१॥

चले मत्त गज जूथ घनेरे।
प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥
बरन बरन बिरदैत निकाया।
समर सूर जानहिं बहु माया।


मतवाले हाथियोंके बहुत-से झुंड चले। मानो पवनसे प्रेरित हुए वर्षा-ऋतुके बादल हों। रंग-बिरंगे बाना धारण करनेवाले वीरोंके समूह हैं, जो युद्ध में बड़े शूरवीर हैं और बहुत प्रकारकी माया जानते हैं॥ २॥

अति बिचित्र बाहिनी बिराजी।
बीर बसंत सेन जनु साजी॥
चलत कटक दिगसिंधुर डगहीं।
छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥


अत्यन्त विचित्र फौज शोभित है। मानो वीर वसन्तने सेना सजायी हो। सेनाके चलनेसे दिशाओंके हाथी डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गये और पर्वत डगमगाने लगे॥३॥

उठी रेनु रबि गयउ छपाई।
मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं।
प्रलय समय के घन जनु गाजहिं।


इतनी धूल उड़ी कि सूर्य छिप गये। [फिर सहसा] पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी। ढोल और नगाड़े भीषण ध्वनिसे बज रहे हैं; जैसे प्रलयकालके बादल गरज रहे हों॥४॥

भेरि नफीरि बाज सहनाई।
मारू राग सुभट सुखदाई॥
केहरि नाद बीर सब करहीं।
निज निज बल पौरुष उच्चरहीं।


भेरी, नफीरी (तुरही) और शहनाईमें योद्धाओंको सुख देनेवाला मारू राग बज रहा है। सब वीर सिंहनाद करते हैं और अपने-अपने बल-पौरुषका बखान कर रहे हैं॥ ५॥

कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा।
मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा।
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई।
अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई॥


रावणने कहा-हे उत्तम योद्धाओ ! सुनो! तुम रीछ-वानरोंके ठट्टको मसल डालो। और मैं दोनों राजकुमार भाइयोंको मारूँगा। ऐसा कहकर उसने अपनी सेना सामने चलायी॥६॥

यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई।
धाए करि रघुबीर दोहाई॥


जब सब वानरोंने यह खबर पायी, तब वे श्रीरघुवीरकी दुहाई देते हुए दौड़े।॥७॥

छं०- धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बंद नाना बान ते॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥


वे विशाल और कालके समान कराल वानर-भालू दौड़े। मानो पंखवाले पर्वतोंके समूह उड़ रहे हों। वे अनेक वर्षों के हैं। नख, दाँत, पर्वत और बड़े-बड़े वृक्ष ही उनके हथियार हैं। वे बड़े बलवान् हैं और किसीका भी डर नहीं मानते। रावणरूपी मतवाले हाथीके लिये सिंहरूप श्रीरामजीका जय-जयकार करके वे उनके सुन्दर यशका बखान करते हैं।

दो०- दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि।
भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि॥७९॥


दोनों ओरके योद्धा जय-जयकार करके अपनी-अपनी जोड़ी जान (चुन) कर इधर श्रीरघुनाथजीका और उधर रावणका बखान करके परस्पर भिड़ गये॥७९॥

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।
देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।
बंदि चरन कह सहित सनेहा॥

रावण को रथ पर और श्रीरघुवीरको बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गये। प्रेम अधिक होनेसे उनके मनमें सन्देह हो गया [कि वे बिना रथके रावणको कैसे जीत सकेंगे] | श्रीरामजीके चरणोंकी वन्दना करके वे स्नेहपूर्वक कहने लगे॥१॥

नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना।
केहि बिधि जितब बीर बलवाना।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।

हे नाथ! आपके न रथ है, न तनकी रक्षा करनेवाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान् वीर रावण किस प्रकार जीता जायगा ? कृपानिधान श्रीरामजीने कहा-हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है॥२॥

सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे॥

शौर्य और धैर्य उस रथके पहिये हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इन्द्रियोंका वशमें होना) और परोपकार ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समतारूपी डोरीसे रथमें जोड़े हुए हैं॥३॥

ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥

ईश्वरका भजन ही [उस रथको चलानेवाला] चतुर सारथि है। वैराग्य ढाल है और सन्तोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥४॥

अमल अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।
एहि सम बिजय उपाय न दूजा।

निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकसके समान है। शम (मनका वशमें होना), [अहिंसादि] यम और [शौचादि] नियम-ये बहुत-से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरुका पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजयका दूसरा उपाय नहीं है॥५॥

सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥

हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिये जीतनेको कहीं शत्रु ही नहीं है॥६॥

दो०- महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥८० (क)॥

हे धीरबुद्धिवाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रुको भी जीत सकता है [रावणकी तो बात ही क्या है]॥ ८० (क)॥

सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेह राम कृपा सुख पुंज॥८० (ख)॥

प्रभुके वचन सुनकर विभीषणजीने हर्षित होकर उनके चरणकमल पकड लिये [और कहा-] हे कृपा और सुखके समूह श्रीरामजी! आपने इसी बहाने मुझे [महान्] उपदेश दिया।। ८० (ख)॥

उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥८० (ग)॥

उधरसे रावण ललकार रहा है और इधरसे अगंद और हनुमान। राक्षस और रीछ वानर अपने-अपने स्वामीकी दुहाई देकर लड़ रहे हैं।। ८० (ग)||

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना।
देखत रन नभ चढ़े बिमाना।
हमहू उमा रहे तेहिं संगा।
देखत राम चरित रन रंगा॥

ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानोंपर चढ़े हुए आकाशसे युद्ध देख रहे हैं। [शिवजी कहते हैं-] हे उमा! मैं भी उस समाजमें था और श्रीरामजीके रण-रंग (रणोत्साह) की लीला देख रहा था॥१॥

सुभट समर रस दुहु दिसि माते।
कपि जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन भिरहिं पचारहिं।
एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥

दोनों ओरके योद्धा रण-रसमें मतवाले हो रहे हैं। वानरोंको श्रीरामजीका बल है, इससे वे जयशील हैं (जीत रहे हैं)। एक दूसरेसे भिड़ते और ललकारते हैं और एक दूसरेको मसल-मसलकर पृथ्वीपर डाल देते हैं॥२॥

मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं।
सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं।।
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं।
गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥

वे मारते, काटते, पकड़ते और पछाड़ देते हैं और सिर तोड़कर उन्हीं सिरोंसे दूसरोंको मारते हैं। पेट फाड़ते हैं, भुजाएँ उखाड़ते हैं और योद्धाओंको पैर पकड़कर पृथ्वीपर पटक देते हैं।। ३।।

निसिचर भट महि गाड़हिं भालू।
ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥
बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे।
देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥
 
राक्षस योद्धाओंको भालू पृथ्वीमें गाड़ देते हैं और ऊपरसे बहुत-सी बालू डाल देते हैं। युद्धमें शत्रुओंसे विरुद्ध हुए वीर वानर ऐसे दिखायी पड़ते हैं मानो बहुत से क्रोधित काल हों॥४॥

छं०- क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं।


क्रोधित हुए कालके समान वे वानर खून बहते हुए शरीरोंसे शोभित हो रहे हैं। वे बलवान् वीर राक्षसोंकी सेनाके योद्धाओंको मसलते और मेघकी तरह गरजते हैं। डाँटकर चपेटोंसे मारते, दाँतोंसे काटकर लातोंसे पीस डालते हैं। वानर-भालू चिग्घाड़ते और ऐसा छल-बल करते हैं जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जायँ॥१॥

धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रह्लादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं।
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥

वे राक्षसोंके गाल पकड़कर फाड़ डालते हैं, छाती चीर डालते हैं और उनकी अंतड़ियाँ निकालकर गलेमें डाल लेते हैं। वे वानर ऐसे देख पड़ते हैं मानो प्रह्लादके स्वामी श्रीनृसिंह भगवान अनेकों शरीर धारण करके युद्धके मैदान में क्रीडा कर रहे हों। पकड़ो, मारो, काटो, पछाड़ो आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वीमें भर (छा) गये हैं। श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो, जो सचमुच तृणसे वज्र और वज्रसे तृण कर देते हैं (निर्बलको सबल और सबलको निर्बल कर देते हैं)॥२॥

दो०- निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥८१॥

अपनी सेनाको विचलित होते हुए देखा, तब बीस भुजाओंमें दस धनुष लेकर रावण रथपर चढ़कर गर्व करके 'लौटो, लौटो' कहता हुआ चला।। ८१॥

धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर।
सन्मुख चले हूह दै बंदर॥
गहि कर पादप उपल पहारा।
डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥

रावण अत्यन्त क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुंकार करते हुए [लड़नेके लिये] उसके सामने चले। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावणपर एक ही साथ डाले॥१॥

लागहिं सैल बज्र तन तासू।
खंड खंड होइ फूटहिं आसू॥
चला न अचल रहा रथ रोपी।
रन दुर्मद रावन अति कोपी॥

पर्वत उसके वज्रतुल्य शरीरमें लगते ही तुरंत टुकड़े-टुकड़े होकर फूट जाते हैं। अत्यन्त क्रोधी रणोन्मत्त रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा, [अपने स्थानसे] जरा भी नहीं हिला॥२॥

इत उत झपटि दपटि कपि जोधा।
मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥
चले पराइ भालु कपि नाना।
त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना॥

उसे बहुत ही क्रोध हुआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर योद्धाओंको मसलने लगा। अनेकों वानर-भालू हे अंगद! हे हनुमान! रक्षा करो, रक्षा करो' [पुकारते हुए] भाग चले॥३॥

पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं।
यह खल खाइ काल की नाईं।
तेहिं देखे कपि सकल पराने।
दसहुँ चाप सायक संधाने॥

हे रघुवीर! हे गोसाईं ! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। यह दुष्ट कालकी भाँति हमें खा रहा है। उसने देखा कि सब वानर भाग छूटे। तब [रावणने] दसों धनुषापर बाण सन्धान किये॥४॥

छं०- संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागही।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहा।।
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुर।
रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे।।


उसने धनुषपर सन्धान करके बाणोंके समूह छोड़े। वे बाण सर्पकी तरह उड़कर जा लगते थे। पृथ्वी-आकाश और दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भर रहे हैं। वानर भागें तो कहाँ? अत्यन्त कोलाहल मच गया। वानर-भालुओंकी सेना व्याकुल होकर आत्त पुकार करने लगी-हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीड़ितोंके बन्धु! हे सेवकोंकी रक्षा करके उनके दुःख हरनेवाले हरि!

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