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श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

मेघनाद-यज्ञ-विध्वंस, युद्ध और मेघनाद का उद्धार



जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा।
आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा।
जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥

वानरोंने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है। वानरोंने सब यज्ञ विध्वंस कर दिया। फिर भी जब वह नहीं उठा, तब वे उसकी प्रशंसा करने लगे।॥१॥

तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई।
लातन्हि हति हति चले पराई।
लै त्रिसूल धावा कपि भागे।
आए जहँ रामानुज आगे॥

इतनेपर भी वह न उठा, [तब] उन्होंने जाकर उसके बाल पकड़े और लातोंसे मार-मारकर वे भाग चले। वह त्रिशूल लेकर दौड़ा, तब वानर भागे और वहाँ आ गये जहाँ आगे लक्ष्मणजी खड़े थे॥२॥

आवा परम क्रोध कर मारा।
गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥
कोपि मरुतसुत अंगद धाए।
हति त्रिसूल उर धरनि गिराए।

वह अत्यन्त क्रोधका मारा हुआ आया और बार-बार भयंकर शब्द करके गरजने लगा। मारुति (हनुमान) और अंगद क्रोध करके दौड़े। उसने छातीमें त्रिशूल मारकर दोनोंको धरतीपर गिरा दिया॥३॥

प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा।
सर हति कृत अनंत जुग खंडा॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा।
हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥

फिर उसने प्रभु श्रीलक्ष्मणजीपर प्रचण्ड त्रिशूल छोड़ा। अनन्त (श्रीलक्ष्मणजी) ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिये। हनुमानजी और युवराज अंगद फिर उठकर क्रोध करके उसे मारने लगे, पर उसे चोट न लगी॥४॥

फिरे बीर रिपु मरइ न मारा।
तब धावा करि घोर चिकारा॥
आवत देखि क्रुद्ध जनु काला।
लछिमन छाड़े बिसिख कराला॥

शत्रु (मेघनाद) मारे नहीं मरता. यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर चिग्घाड़ करके दौड़ा। उसे क्रुद्ध कालकी तरह आता देखकर लक्ष्मणजीने भयानक बाण छोड़े॥५॥

देखेसि आवत पबि सम बाना।
तुरत भयउ खल अंतरधाना॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई।
कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥

वज्रके समान बाणोंको आते देखकर वह दुष्ट तुरंत अन्तर्धान हो गया और फिर भाँति-भाँतिके रूप धारण करके युद्ध करने लगा। वह कभी प्रकट होता था और कभी छिप जाता था॥६॥

देखि अजय रिपु डरपे कीसा।
परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा।
एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा।।

शत्रुको पराजित न होता देखकर वानर डरे। तब सर्पराज शेषजी (लक्ष्मणजी) बहुत ही क्रोधित हुए। लक्ष्मणजीने मनमें यह विचार दृढ़ किया कि इस पापीको मैं बहुत खेला चुका [अब और अधिक खेलाना अच्छा नहीं, अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिये।॥७॥

सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा।
सर संधान कीन्ह करि दापा॥
छाड़ा बान माझ उर लागा।
मरती बार कपटु सब त्यागा।

कोसलपति श्रीरामजीके प्रतापका स्मरण करके लक्ष्मणजीने वीरोचित दर्प करके बाणका सन्धान किया। बाण छोड़ते ही उसकी छातीके बीचमें लगा। मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया।॥८॥

दो०- रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान।
धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान॥७६॥

रामके छोटे भाई लक्ष्मण कहाँ हैं ? राम कहाँ हैं ? ऐसा कहकर उसने प्राण छोड़ दिये। अंगद और हनुमान कहने लगे-तेरी माता धन्य है, धन्य है, [जो तू लक्ष्मणजीके हाथों मरा और मरते समय श्रीराम-लक्ष्मणको स्मरण करके तूने उनके नामोंका उच्चारण किया।]॥७६।।

बिनु प्रयास हनुमान उठायो।
लंका द्वार राखि पुनि आयो॥
तासु मरन सुनि सुर गंधर्वा।
चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा।

हनुमानजीने उसको बिना ही परिश्रमके उठा लिया और लङ्काके दरवाजेपर रखकर वे लौट आये। उसका मरना सुनकर देवता और गन्धर्व आदि सब विमानोंपर चढ़कर आकाशमें आये॥१॥

बरषि सुमन दुंदुभी बजावहिं।
श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं।।
जय अनंत जय जगदाधारा।
तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा।

वे फूल बरसाकर नगाड़े बजाते हैं और श्रीरघुनाथजीका निर्मल यश गाते हैं। हे अनन्त ! आपकी जय हो, हे जगदाधार! आपकी जय हो। हे प्रभो! आपने सब देवताओंका [महान् विपत्तिसे] उद्धार किया॥२॥

अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए।
लछिमन कृपासिंधु पहिं आए।
सुत बध सुना दसानन जबहीं।
मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं।

देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गये, तब लक्ष्मणजी कृपाके समुद्र श्रीरामजीके पास आये। रावणने ज्यों ही पुत्रवधका समाचार सुना, त्यों ही वह मूछित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥३॥

मंदोदरी रुदन कर भारी।
उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥
नगर लोग सब ब्याकुल सोचा।
सकल कहहिं दसकंधर पोचा।


मन्दोदरी छाती पीट-पीटकर और बहुत प्रकारसे पुकार-पुकारकर बड़ा भारी विलाप करने लगी। नगरके सब लोग शोकसे व्याकुल हो गये। सभी रावणको नीच कहने लगे॥ ४॥

दो०- तब दसकंठ बिबिधि बिधि समुझाई सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥७७॥


तब रावणने सब स्त्रियोंको अनेकों प्रकारसे समझाया कि समस्त जगतका यह (दृश्य) रूप नाशवान् है, हृदयमें विचारकर देखो॥७७॥

तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन।
आपुन मंद कथा सुभ पावन।
पर उपदेस कुसल बहुतेरे।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे।


रावणने उनको ज्ञानका उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र है। दूसरोंको उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं जो उपदेशके अनुसार आचरण भी करते हैं॥१॥

निसा सिरानि भयउ भिनुसारा।
लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला।
रन सन्मुख जा कर मन डोला।


रात बीत गयी, सबेरा हुआ। रीछ-वानर [फिर] चारों दरवाजोंपर जा डटे। योद्धाओंको बुलाकर दशमुख रावणने कहा-लड़ाईमें शत्रुके सम्मुख जिसका मन डाँवाडोल हो,॥२॥

सो अबहीं बरु जाउ पराई।
संजुग बिमुख भएँ न भलाई।
निज भुजबल मैं बयरु बढ़ावा।
देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा॥


अच्छा है वह अभी भाग जाय। युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है। मैंने अपनी भुजाओंके बलपर वैर बढ़ाया है। जो शत्रु चढ़ आया है, उसको मैं [अपने ही] उत्तर दे लूँगा॥३॥

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