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श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

लक्ष्मण-रावण-युद्ध



दो०- निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥८२॥

अपनी सेनाको व्याकुल देखकर कमरमें तरकस कसकर और हाथमें धनुष लेकर श्रीरघुनाथजीके चरणोंपर मस्तक नवाकर लक्ष्मणजी क्रोधित होकर चले॥ ८२।।

रे खल का मारसि कपि भालू।
मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती।
आजु निपाति जुड़ावउँ छाती॥

[लक्ष्मणजीने पास जाकर कहा-] अरे दुष्ट ! वानर-भालुओंको क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ? [रावणने कहा--] अरे मेरे पुत्रके घातक! मैं तुझीको ढूँढ़ रहा था। आज तुझे मारकर [अपनी] छाती ठंडी करूँगा॥१॥

अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा।
लछिमन किए सकल सत खंडा॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे।
तिल प्रवान करि काटि निवारे॥

ऐसा कहकर उसने प्रचण्ड बाण छोड़े। लक्ष्मणजीने सबके सैकड़ों टुकड़े कर डाले। रावणने करोड़ों अस्त्र-शस्त्र चलाये। लक्ष्मणजीने उनको तिलके बराबर करके काटकर हटा दिया।॥ २॥

पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा।
स्यंदनु भंजि सारथी मारा॥
सत सत सर मारे दस भाला।
गिरि सुगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला॥

फिर अपने बाणोंसे [उसपर] प्रहार किया और [उसके] रथको तोड़कर सारथिको मार डाला। [रावणके] दसों मस्तकोंमें सौ-सौ बाण मारे। वे सिरोंमें ऐसे पैठ गये मानो पहाड़के शिखरोंमें सर्प प्रवेश कर रहे हों॥३॥

पुनि सत सर मारा उर माहीं।
परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी।
छाडिसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी॥

फिर सौ बाण उसको छातीमें मारे। वह पृथ्वीपर गिर पड़ा, उसे कुछ भी होश न रहा। फिर मूर्छा छूटनेपर वह प्रबल रावण उठा और उसने वह शक्ति चलायी जो ब्रह्माजीने उसे दी थी॥ ४॥

छं०-सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही।
परयो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही।
ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी।
तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी॥
वह ब्रह्माकी दी हुई प्रचण्ड शक्ति लक्ष्मणजीको ठीक छातीमें लगी। वीर लक्ष्मणजी व्याकुल होकर गिर पड़े। तब रावण उन्हें उठाने लगा, पर उसके अतुलित बलकी महिमा यों ही रह गयी (व्यर्थ हो गयी, वह उन्हें उठा न सका)। जिनके एक ही सिरपर ब्रह्माण्डरूपी भवन धूलके एक कणके समान विराजता है, उन्हें मूर्ख रावण उठाना चाहता है! वह तीनों भुवनोंके स्वामी लक्ष्मणजीको नहीं जानता।

दो०- देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥८३॥

यह देखकर पवनपुत्र हनुमानजी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमानजीके आते ही रावण उनपर अत्यन्त भयङ्कर चूँसेका प्रहार किया॥८३॥

जानु टेकि कपि भूमि न गिरा।
उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥
मुठिका एक ताहि कपि मारा।
परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥

हनुमानजी घुटने टेककर रह गये, पृथ्वीपर गिरे नहीं। और फिर क्रोधसे भरे हुए सँभालकर उठे। हनुमानजीने रावणको एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्रकी मारसे पर्वत गिरा हो॥१॥

मुरुछा गै बहोरि सो जागा।
कपि बल बिपुल सराहन लागा॥
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही।
जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही।।

मूर्छा भंग होने पर फिर वह जगा और हनुमानजी के बड़े भारी बल को सराहने लगा। [हनुमानजीने कहा-] मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है,जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया॥ २॥

अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो।
देखि दसानन बिसमय पायो॥
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता।
तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता॥


ऐसा कहकर और लक्ष्मणजीको उठाकर हनुमानजी श्रीरघुनाथजीके पास ले आये। यह देखकर रावणको आश्चर्य हुआ। श्रीरघुवीरने [लक्ष्मणजीसे] कहा-हे भाई! हृदयमें समझो, तुम कालके भी भक्षक और देवताओंके रक्षक हो॥३॥

सुनत बचन उठि बैठ कृपाला।
गई गगन सो सकति कराला॥
पुनि कोदंड बान गहि धाए।
रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥

ये वचन सुनते ही कृपालु लक्ष्मणजी उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाशको चली गयी। लक्ष्मणजी फिर धनुष-बाण लेकर दौड़े और बड़ी शीघ्रतासे शत्रुके सामने आ पहुँचे॥४॥

छं०- आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर्यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो।
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो।
रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥


फिर उन्होंने बड़ी ही शीघ्रतासे रावणके रथको चूर-चूरकर और सारथिको मारकर उसे (रावणको) व्याकुल कर दिया। सौ बाणोंसे उसका हृदय बेध दिया, जिससे रावण अत्यन्त व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब दूसरा सारथि उसे रथमें डालकर तुरंत ही लंकाको ले गया। प्रतापके समूह श्रीरघुवीरके भाई लक्ष्मणजीने फिर आकर प्रभुके चरणोंमें प्रणाम किया।

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