श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
कैकेयीका पश्चात्ताप
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ।
माया सज सिय माया माहूँ।
सीय सासु सेवा बस कीन्हीं।
तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥
माया सज सिय माया माहूँ।
सीय सासु सेवा बस कीन्हीं।
तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥
श्रीरामचन्द्रजीके सिवा इस भेदको और किसीने नहीं जाना। सब मायाएँ [पराशक्ति महामाया] श्रीसीताजीकी मायामें ही हैं। सीताजीने सासुओं को सेवा से वश में कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिये ॥२॥
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई।
कुटिल रानि पछितानि अघाई॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई।
महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥
कुटिल रानि पछितानि अघाई॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई।
महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥
सीताजीसमेत दोनों भाइयों (श्रीराम-लक्ष्मण) को सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछतायी। वह पृथ्वी तथा यमराजसे याचना करती है, किन्तु धरती बीच (फटकर समा जानेके लिये रास्ता) नहीं देती और विधाता मौत नहीं देता ॥३॥
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं।
राम बिमुख थलु नरक न लहहीं॥
यहु संसउ सब के मन माहीं।
राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥
राम बिमुख थलु नरक न लहहीं॥
यहु संसउ सब के मन माहीं।
राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥
लोक और वेदमें प्रसिद्ध है और कवि (ज्ञानी) भी कहते हैं कि जो श्रीरामजीसे विमुख हैं उन्हें नरकमें भी ठौर नहीं मिलती। सबके मनमें यह सन्देह हो रहा था कि हे विधाता! श्रीरामचन्द्रजीका अयोध्या जाना होगा या नहीं॥४॥
निसिन नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥२५२॥
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥२५२॥
भरतजीको न तो रातको नींद आती है, न दिनमें भूख ही लगती है। वे पवित्र सोचमें ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे (तल) के कीचड़में डूबी हुई मछलीको जलकी कमीसे व्याकुलता होती है ॥ २५२।।
कीन्हि मातु मिस काल कुचाली।
ईति भीति जस पाकत साली।
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू।
मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥
ईति भीति जस पाकत साली।
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू।
मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥
[भरतजी सोचते हैं कि] माता के मिस से काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो। अब श्रीरामचन्द्रजीका राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता ॥१॥
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी।
मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ।
राम जननि हठ करबि कि काऊ।
मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ।
राम जननि हठ करबि कि काऊ।
गुरुजीकी आज्ञा मानकर तो श्रीरामजी अवश्य ही अयोध्याको लौट चलेंगे। परन्तु मुनि वसिष्ठजी तो श्रीरामचन्द्रजीकी रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे (अर्थात् वे श्रीरामजीकी रुचि देखे बिना जानेको नहीं कहेंगे)।माता कौसल्याजीके कहनेसे भी श्रीरघुनाथजी लौट सकते हैं; पर भला, श्रीरामजीको जन्म देनेवाली माता क्या कभी हठ करेगी? ॥२॥
मोहि अनुचर कर केतिक बाता।
तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू।
हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥
तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू।
हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥
मुझ सेवककी तो बात ही कितनी है ? उसमें भी समय खराब है (मेरे दिन अच्छे नहीं हैं) और विधाता प्रतिकूल है। यदि मैं हठ करता हूँ तो यह घोर कुकर्म (अधर्म) होगा, क्योंकि सेवकका धर्म शिवजीके पर्वत कैलाससे भी भारी (निबाहने में कठिन) है॥३॥
एकउ जुगुति न मन ठहरानी।
सोचत भरतहि रैनि बिहानी॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई।
बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥
सोचत भरतहि रैनि बिहानी॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई।
बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥
एक भी युक्ति भरतजीके मनमें न ठहरी। सोचते-ही-सोचते रात बीत गयी। भरतजी प्रात:काल स्नान करके और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वसिष्ठजीने उनको बुलवा भेजा ॥४॥
गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥२५३॥
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥२५३॥
भरतजी गुरुके चरणकमलोंमें प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गये। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मन्त्री आदि सभी सभासद आकर जुट गये॥ २५३॥
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