श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
श्रीवसिष्ठजी का भाषण
बोले मुनिबरु समय समाना।
सुनहु सभासद भरत सुजाना॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू।
राजा रामु स्वबस भगवानू॥
सुनहु सभासद भरत सुजाना॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू।
राजा रामु स्वबस भगवानू॥
श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठजी समयोचित वचन बोले-हे सभासदो! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुलके सूर्य महाराज श्रीरामचन्द्र धर्मधुरन्धर और स्वतन्त्र भगवान् हैं ॥१॥
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू।
राम जनमु जग मंगल हेतू॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी।
खल दलु दलन देव हितकारी॥
राम जनमु जग मंगल हेतू॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी।
खल दलु दलन देव हितकारी॥
वे सत्यप्रतिज्ञ हैं और वेदकी मर्यादाके रक्षक हैं। श्रीरामजीका अवतार ही जगत्के कल्याणके लिये हुआ है। वे गुरु, पिता और माताके वचनोंके अनुसार चलनेवाले हैं। दुष्टोंके दलका नाश करनेवाले और देवताओंके हितकारी हैं ॥२॥
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु।
कोउ न राम सम जान जथारथु॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला।
माया जीव करम कुलि काला॥
कोउ न राम सम जान जथारथु॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला।
माया जीव करम कुलि काला॥
नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थको श्रीरामजीके समान यथार्थ (तत्त्वसे) कोई नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल, ॥३॥
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई।
जोग सिद्धि निगमागम गाई॥
करि बिचार जियँ देखहु नीकें।
राम रजाइ सीस सब ही कें॥
जोग सिद्धि निगमागम गाई॥
करि बिचार जियँ देखहु नीकें।
राम रजाइ सीस सब ही कें॥
शेषजी और [पृथ्वी एवं पातालके अन्यान्य] राजा आदि जहाँतक प्रभुता है, और योगकी सिद्धियाँ, जो वेद और शास्त्रोंमें गायी गयी हैं, हृदयमें अच्छी तरह विचार कर देखो, [तो यह स्पष्ट दिखायी देगा कि] श्रीरामजीकी आज्ञा इन सभीके सिरपर है (अर्थात् श्रीरामजी ही सबके एकमात्र महान् महेश्वर हैं) ॥४॥
राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥२५४॥
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥२५४॥
अतएव श्रीरामजीकी आज्ञा और रुख रखनेमें ही हम सबका हित होगा। [इस तत्त्व और रहस्यको समझकर] अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वही मिलकर करो ॥ २५४॥
सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू।
मंगल मोद मूल मग एकू॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ।
कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥
मंगल मोद मूल मग एकू॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ।
कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥
श्रीरामजी का राज्याभिषेक सबके लिये सुखदायक है। मङ्गल और आनन्दका मूल यही एक मार्ग है। [अब] श्रीरघुनाथजी अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही उपाय किया जाय॥१॥
सब सादर सुनि मुनिबर बानी।
नय परमारथ स्वारथ सानी॥
उतरु न आव लोग भए भोरे।
तब सिरु नाइ भरत कर जोरे।।
नय परमारथ स्वारथ सानी॥
उतरु न आव लोग भए भोरे।
तब सिरु नाइ भरत कर जोरे।।
मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीकी नीति, परमार्थ और स्वार्थ (लौकिक हित) में सनी हुई वाणी सबने आदरपूर्वक सुनी। पर किसीको कोई उत्तर नहीं आता, सब लोग भोले (विचारशक्तिसे रहित) हो गये। तब भरतने सिर नवाकर हाथ जोड़े॥२॥
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