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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

वनवासियों द्वारा भरतजी की मण्डली का सत्कार



राम सैल बन देखन जाहीं।
जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं॥
झरना झरहिं सुधासम बारी।
त्रिविध तापहर त्रिबिध बयारी॥


सब श्रीरामचन्द्रजीके पर्वत (कामदगिरि) और वनको देखने जाते हैं, जहाँ सभी सुख हैं और सभी दुःखोंका अभाव है। झरने अमृतके समान जल झरते हैं और तीन प्रकारकी (शीतल, मन्द, सुगन्ध) हवा तीनों प्रकारके (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) तापोंको हर लेती है ॥ ३ ॥

बिटप बेलि तृन अगनित जाती।
फल प्रसून पल्लव बहु भाँती।।
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं।
जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥

असंख्य जातिके वृक्ष, लताएँ और तृण हैं तथा बहुत तरहके फल, फूल और पत्ते हैं। सुन्दर शिलाएँ हैं। वृक्षोंकी छाया सुख देनेवाली है। वनकी शोभा किससे वर्णन की जा सकती है?॥४॥

सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भुंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥२४९॥


तालाबोंमें कमल खिल रहे हैं, जलके पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगोंके पक्षी और पशु वनमें वैररहित होकर विहार कर रहे हैं ॥ २४९।।

कोल किरात भिल्ल बनबासी।
मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥
भरि भरि परन पुटी रचि रूरी।
कंद मूल फल अंकुर जूरी॥


कोल, किरात और भील आदि वनके रहनेवाले लोग पवित्र, सुन्दर एवं अमृतके समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुन्दर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर तथा कन्द, मूल, फल और अंकुर आदिकी जूड़ियों (अँटियों) को॥१॥

सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा।
कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं।
फेरत राम दोहाई देहीं।


सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजोंके अलग-अलग स्वाद, भेद (प्रकार), गुण और नाम बता-बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा देनेमें श्रीरामजीकी दुहाई देते हैं ॥२॥

कहहिं सनेह मगन मृदु बानी।
मानत साधु पेम पहिचानी॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा।
पावा दरसनु राम प्रसादा॥


प्रेममें मग्न हुए वे कोमल वाणीसे कहते हैं कि साधु लोग प्रेमको पहचानकर उसका सम्मान करते हैं (अर्थात् आप साधु हैं, आप हमारे प्रेमको देखिये, दाम देकर या वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेमका तिरस्कार न कीजिये)। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं। श्रीरामजीकी कृपासे ही हमने आपलोगोंके दर्शन पाये हैं ॥३॥

हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा।
जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा।
परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥

हमलोगोंको आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमिके लिये गङ्गाजीकी धारा दुर्लभ है! [देखिये,] कृपालु श्रीरामचन्द्रजीने निषादपर कैसी कृपा की है। जैसे राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजाको भी होना चाहिये।।४॥

यह जियँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहुलखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु॥२५०॥


हृदयमें ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिये और हमको कृतार्थ करनेके लिये ही फल, तृण और अंकुर लीजिये।। २५० ॥

तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे।
सेवा जोगु न भाग हमारे॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई।
ईंधनु पात किरात मिताई।


आप प्रिय पाहने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करनेके योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं। हे स्वामी! हम आपको क्या देंगे? भीलोंकी मित्रता तो बस, ईंधन (लकड़ी) और पत्तों ही तक है॥१॥

यह हमारि अति बड़ि सेवकाई।
लेहिं न बासन बसन चोराई॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती।
कुटिल कुचाली कुमति कुजाती।

हमारी तो यही बड़ी भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन नहीं चुरा लेते। हमलोग जड़ जीव हैं, जीवोंकी हिंसा करनेवाले हैं; कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि और कुजाति हैं॥२॥

पाप करत निसि बासर जाहीं।
नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं॥
सपनेहुँ धरमबुद्धि कस काऊ।
यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥

हमारे दिन-रात पाप करते ही बीतते हैं। तो भी न तो हमारी कमरमें कपड़ा है और न पेट ही भरते हैं। हममें स्वप्रमें भी कभी धर्मबुद्धि कैसी? यह सब तो श्रीरघुनाथजीके दर्शनका प्रभाव है॥३॥

जब तें प्रभु पद पदुम निहारे।
मिटे दुसह दुख दोष हमारे॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे।
तिन्ह के भाग सराहन लागे॥


जबसे प्रभुके चरणकमल देखे, तबसे हमारे दुःसह दुःख और दोष मिट गये। वनवासियोंके वचन सुनकर अयोध्याके लोग प्रेममें भर गये और उनके भाग्यकी सराहना करने लगे॥४॥

छं०- लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥


सब उनके भाग्यकी सराहना करने लगे और प्रेमके वचन सुनाने लगे। उन लोगोंके बोलने और मिलनेका ढंग तथा श्रीसीतारामजीके चरणोंमें उनका प्रेम देखकर सब सुख पा रहे हैं। उन कोल-भीलोंकी वाणी सुनकर सभी नर-नारी अपने प्रेमका निरादर करते हैं (उसे धिक्कार देते हैं)। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजीकी कृपा है कि लोहा नौकाको अपने ऊपर लेकर तैर गया।

सो०-बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम॥२५१॥


सब लोग दिनोंदिन परम आनन्दित होते हुए वनमें चारों ओर विचरते हैं, जैसे पहली वर्षाके जलसे मेढ़क और मोर मोटे हो जाते हैं (प्रसन्न होकर नाचते कूदते हैं)॥ २५१॥

पुर जन नारि मगन अति प्रीती।
बासर जाहिं पलक सम बीती।
सीय सासु प्रति बेष बनाई।
सादर करइ सरिस सेवकाई॥

अयोध्यापुरीके पुरुष और स्त्री सभी प्रेममें अत्यन्त मग्न हो रहे हैं। उनके दिन पलके समान बीत जाते हैं। जितनी सासुएँ थीं, उतने ही वेष (रूप) बनाकर सीताजी सब सासुओंकी आदरपूर्वक एक-सी सेवा करती हैं ॥१॥

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