श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
A PHP Error was encounteredSeverity: Notice Message: Undefined index: author_hindi Filename: views/read_books.php Line Number: 21 |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड) |
वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
वनवासियोंद्वारा भरतजीकी मण्डलीका सत्कार
देखि भरत गति अकथ अतीवा।
प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला।
कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥
प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला।
कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥
भरतजीकी अत्यन्त अनिर्वचनीय दशा देखकर वनके पशु, पक्षी और जड (वृक्षादि) जीव प्रेममें मग्न हो गये। प्रेमके विशेष वश होनेसे सखा निषादराजको भी रास्ता भूल गया। तब देवता सुन्दर रास्ता बतलाकर फूल बरसाने लगे॥३॥
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे।
सहज सनेहु सराहन लागे।
होत न भूतल भाउ भरत को।
अचर सचर चर अचर करत को।
सहज सनेहु सराहन लागे।
होत न भूतल भाउ भरत को।
अचर सचर चर अचर करत को।
भरतके प्रेमकी इस स्थितिको देखकर सिद्ध और साधकलोग भी अनुरागसे भर गये और उनके स्वाभाविक प्रेमकी प्रशंसा करने लगे कि यदि इस पृथ्वीतलपर भरतका जन्म [अथवा प्रेम] न होता, तो जड़को चेतन और चेतनको जड़ कौन करता?॥४॥
पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गंभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥२३८॥
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥२३८॥
प्रेम अमृत है, विरह मन्दराचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र हैं। कृपाके समुद्र श्रीरामचन्द्रजीने देवता और साधुओंके हितके लिये स्वयं [इस भरतरूपी गहरे समुद्रको अपने विरहरूपी मन्दराचलसे] मथकर यह प्रेमरूपी अमृत प्रकट किया है ॥ २३८ ॥
सखा समेत मनोहर जोटा।
लखेउ न लखन सघन बन ओटा।
भरत दीख प्रभु आश्रम पावन।
सकल सुमंगल सदनु सुहावन।
लखेउ न लखन सघन बन ओटा।
भरत दीख प्रभु आश्रम पावन।
सकल सुमंगल सदनु सुहावन।
सखा निषादराजसहित इस मनोहर जोड़ीको सघन वनकी आड़के कारण लक्ष्मणजी नहीं देख पाये। भरतजीने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके समस्त सुमङ्गलोंके धाम और सुन्दर पवित्र आश्रमको देखा ॥१॥
करत प्रबेस मिटे दुख दावा।
जनु जोगीं परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे।
पूँछे बचन कहत अनुरागे॥
जनु जोगीं परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे।
पूँछे बचन कहत अनुरागे॥
आश्रममें प्रवेश करते ही भरतजीका दुःख और दाह (जलन) मिट गया, मानो योगीको परमार्थ (परमतत्त्व) की प्राप्ति हो गयी हो। भरतजीने देखा कि लक्ष्मणजी प्रभुके आगे खड़े हैं और पूछे हुए वचन प्रेमपूर्वक कह रहे हैं (पूछी हुई बातका प्रेमपूर्वक उत्तर दे रहे हैं)॥२॥
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधे।
तून कसे कर सरु धनु काँधे।
बेदी पर मुनि साधु समाजू।
सीय सहित राजत रघुराजू॥
तून कसे कर सरु धनु काँधे।
बेदी पर मुनि साधु समाजू।
सीय सहित राजत रघुराजू॥
सिरपर जटा है। कमरमें मुनियोंका (वल्कल) वस्त्र बाँधे हैं और उसीमें तरकस कसे हैं। हाथमें बाण तथा कंधेपर धनुष है। वेदीपर मुनि तथा साधुओंका समुदाय बैठा है और सीताजीसहित श्रीरघुनाथजी विराजमान हैं ॥ ३॥
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा।
जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत।
जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥
जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत।
जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥
श्रीरामजीके वल्कल वस्त्र हैं, जटा धारण किये हैं, श्याम शरीर है। [सीतारामजी ऐसे लगते हैं] मानो रति और कामदेवने मुनिका वेष धारण किया हो। श्रीरामजी अपने करकमलोंसे धनुष-बाण फेर रहे हैं, और हँसकर देखते ही जीकी जलन हर लेते हैं (अर्थात् जिसकी ओर भी एक बार हँसकर देख लेते हैं, उसीको परम आनन्द और शान्ति मिल जाती है।) ॥४॥
लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानंदु॥२३९ ॥
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानंदु॥२३९ ॥
सुन्दर मुनिमण्डलीके बीचमें सीताजी और रघुकुलचन्द्र श्रीरामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञानकी सभामें साक्षात् भक्ति और सच्चिदानन्द शरीर धारण करके विराजमान हैं।।२३९॥
सानुज सखा समेत मगन मन।
बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं।
भूतल परे लकुट की नाईं।
बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं।
भूतल परे लकुट की नाईं।
छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराजसमेत भरतजीका मन [प्रेममें] मग्न हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गये। 'हे नाथ ! रक्षा कीजिये, हे गुसाईं ! रक्षा कीजिये' ऐसा कहकर वे पृथ्वीपर दण्डकी तरह गिर पड़े॥१॥
बचन सपेम लखन पहिचाने।
करत प्रनामु भरत जियँ जाने।
बंधु सनेह सरस एहि ओरा।
उत साहिब सेवा बस जोरा॥
करत प्रनामु भरत जियँ जाने।
बंधु सनेह सरस एहि ओरा।
उत साहिब सेवा बस जोरा॥
प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजीने पहचान लिया और मनमें जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। [वे श्रीरामजीकी ओर मुँह किये खड़े थे, भरतजी पीठ-पीछे थे; इससे उन्होंने देखा नहीं।] अब इस ओर तो भाई भरतजी का सरस प्रेम और उधर स्वामी श्रीरामचन्द्रजीकी सेवाकी प्रबल परवशता॥२॥
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई।
सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू।
चढ़ी चंग जनु बैंच खेलारू॥
सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू।
चढ़ी चंग जनु बैंच खेलारू॥
न तो [क्षणभरके लिये भी सेवासे पृथक् होकर ] मिलते ही बनता है और न [प्रेमवश] छोड़ते (उपेक्षा करते) ही। कोई श्रेष्ठ कवि ही लक्ष्मणजीके चित्तकी इस गति (दुविधा) का वर्णन कर सकता है। वे सेवापर भार रखकर रह गये (सेवाको ही विशेष महत्त्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे) मानो चढ़ी हुई पतंगको खिलाड़ी (पतंग उड़ानेवाला) खींच रहा हो॥३॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा।
भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा।
कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥
भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा।
कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥
लक्ष्मणजी ने प्रेमसहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा-हे रघुनाथजी ! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्रीरघुनाथजी प्रेममें अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण ॥ ४॥
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥२४०॥
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥२४०॥
कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजीने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदयसे लगा लिया! भरतजी और श्रीरामजीके मिलनेकी रीतिको देखकर सबको अपनी सुध भूल गयी॥ २४०॥
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी।
कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम पेम पूरन दोउ भाई।
मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥
कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम पेम पूरन दोउ भाई।
मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥
मिलनकी प्रीति कैसे बखानी जाय? वह तो कविकुलके लिये कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई (भरतजी और श्रीरामजी) मन, बुद्धि, चित्त और अहंकारको भुलाकर परम प्रेमसे पूर्ण हो रहे हैं ॥१॥
कहहु सुपेम प्रगट को करई।
केहि छाया कबि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा।
अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥
केहि छाया कबि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा।
अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥
कहिये, उस श्रेष्ठ प्रेमको कौन प्रकट करे? कविकी बुद्धि किसकी छायाका अनुसरण करे? कविको तो अक्षर और अर्थका ही सच्चा बल है। नट तालकी गतिके अनुसार ही नाचता है! ॥२॥
अगम सनेह भरत रघुबर को।
जहँ न जाइ मनु बिधि हरिहर को।
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती।
बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥
जहँ न जाइ मनु बिधि हरिहर को।
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती।
बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥
भरतजी और श्रीरघुनाथजीका प्रेम अगम्य है, जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महादेवका भी मन नहीं जा सकता। उस प्रेमको मैं कुबुद्धि किस प्रकार कहूँ! भला, गाँडरकी ताँतसे भी कहीं सुन्दर राग बज सकता है? ॥ ३ ॥
[तालाबों और झीलोंमें एक तरहकी घास होती है, उसे गाँडर कहते हैं।]
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की।
सुरगन सभय धकधकी धरकी॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे।
बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥
सुरगन सभय धकधकी धरकी॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे।
बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥
भरतजी और श्रीरामचन्द्रजीके मिलनेका ढंग देखकर देवता भयभीत हो गये, उनकी धुकधुकी धड़कने लगी। देवगुरु बृहस्पतिजीने समझाया, तब कहीं वे मूर्ख चेते और फूल बरसाकर प्रशंसा करने लगे॥४॥
मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥२४१॥
भूरि भायँ भेटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥२४१॥
फिर श्रीरामजी प्रेमके साथ शत्रुघ्नसे मिलकर तब केवट (निषादराज) से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजीसे भरतजी बड़े ही प्रेमसे मिले। २४१ ॥
भेटेउ लखन ललकि लघु भाई।
बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे।
अभिमत आसिष पाइ अनंदे।
बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे।
अभिमत आसिष पाइ अनंदे।
तब लक्ष्मणजी ललककर (बड़ी उमंगके साथ) छोटे भाई शत्रुघ्नसे मिले। फिर उन्होंने निषादराजको हृदयसे लगा लिया। फिर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाइयोंने [उपस्थित] मुनियोंको प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनन्दित हुए॥१॥
सानुज भरत उमगि अनुरागा।
धरि सिर सिय पद पदुम परागा।
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए।
सिर कर कमल परसि बैठाए॥
धरि सिर सिय पद पदुम परागा।
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए।
सिर कर कमल परसि बैठाए॥
छोटे भाई शत्रुघ्नसहित भरतजी प्रेममें उमँगकर सीताजीके चरणकमलोंकी रज सिरपर धारणकर बार-बार प्रणाम करने लगे। सीताजीने उन्हें उठाकर उनके सिरको अपने करकमलसे स्पर्शकर (सिरपर हाथ फेरकर) उन दोनोंको बैठाया ॥२॥
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं।
मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता।
भे निसोच उर अपडर बीता॥
मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता।
भे निसोच उर अपडर बीता॥
सीताजीने मन-ही-मन आशीर्वाद दिया; क्योंकि वे स्नेहमें मग्न हैं, उन्हें देहकी सुध-बुध नहीं है। सीताजीको सब प्रकारसे अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित हो गये और उनके हृदयका कल्पित भय जाता रहा ॥३॥
कोउ किछ कह न कोउ किछ पँछा।
प्रेम भरा मन निज गति छंछा।
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि।
जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥
प्रेम भरा मन निज गति छंछा।
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि।
जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥
उस समय न तो कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पूछता है। मन प्रेमसे परिपूर्ण है, वह अपनी गतिसे खाली है (अर्थात् संकल्प-विकल्प और चाञ्चल्यसे शून्य है)। उस अवसरपर केवट (निषादराज) धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा-- ॥४॥
नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥२४२॥
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥२४२॥
हे नाथ! मुनिनाथ वसिष्ठजीके साथ सब माताएँ, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मन्त्री-सब आपके वियोगसे व्याकुल होकर आये हैं।। २४२ ॥
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू।
सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला।
धीर धरम धुर दीनदयाला॥
सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला।
धीर धरम धुर दीनदयाला॥
गुरुका आगमन सुनकर शीलके समुद्र श्रीरामचन्द्रजीने सीताजीके पास शत्रुघ्नजी को रख दिया और वे परम धीर, धर्मधुरन्धर, दीनदयालु श्रीरामचन्द्रजी उसी समय वेग के
साथ चल पड़े॥१॥
गुरहि देखि सानुज अनुरागे।
दंड प्रनाम करन प्रभु लागे।
मुनिबर धाइ लिए उर लाई।
प्रेम उमगि भेटे दोउ भाई॥
दंड प्रनाम करन प्रभु लागे।
मुनिबर धाइ लिए उर लाई।
प्रेम उमगि भेटे दोउ भाई॥
गुरुजीके दर्शन करके लक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी प्रेममें भर गये और दण्डवत् प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीने दौड़कर उन्हें हृदयसे लगा लिया और प्रेममें उमँगकर वे दोनों भाइयोंसे मिले ॥२॥
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू।
कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
रामसखा रिषि बरबस भेंटा।
जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
रामसखा रिषि बरबस भेंटा।
जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
फिर प्रेमसे पुलकित होकर केवट (निषादराज) ने अपना नाम लेकर दूरसे ही वसिष्ठजीको दण्डवत् प्रणाम किया। ऋषि वसिष्ठजीने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदयसे लगा लिया। मानो जमीनपर लोटते हुए प्रेमको समेट लिया हो।३।।
रघुपति भगति सुमंगल मूला।
नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं।
बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं।
नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं।
बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं।
श्रीरघुनाथजीकी भक्ति सुन्दर मङ्गलोंका मूल है इस प्रकार कह प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाशसे फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे--जगत्में इसके समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वसिष्ठजीके समान बड़ा कौन है ? ॥४॥
जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥२४३॥
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥२४३॥
जिस (निषाद) को देखकर मुनिराज वसिष्ठजी लक्ष्मणजीसे भी अधिक उससे आनन्दित होकर मिले। यह सब सीतापति श्रीरामचन्द्रजीके भजनका प्रत्यक्ष प्रताप और प्रभाव है।। २४३।।
आरत लोग राम सबु जाना।
करुनाकर सुजान भगवाना॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी।
तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥
करुनाकर सुजान भगवाना॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी।
तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥
दयाकी खान, सुजान भगवान् श्रीरामजीने सब लोगोंको दु:खी (मिलनेके लिये व्याकुल) जाना। तब जो जिस भावसे मिलनेका अभिलाषी था, उस-उसका उस उस प्रकारका रुख रखते हुए (उसकी रुचिके अनुसार) ॥१॥
सानुज मिलि पल महुँ सब काहू।
कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥
यह बड़ि बात राम कै नाहीं।
जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥
कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥
यह बड़ि बात राम कै नाहीं।
जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥
उन्होंने लक्ष्मणजीसहित पलभरमें सब किसीसे मिलकर उनके दुःख और कठिन संतापको दूर कर दिया। श्रीरामचन्द्रजीके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे करोड़ों घड़ोंमें एकही सूर्यकी [पृथक्-पृथक्] छाया (प्रतिबिम्ब) एकसाथ ही दीखती है॥२॥
मिलि केवटहि उमगि अनुरागा।
पुरजन सकल सराहहिं भागा॥
देखीं राम दुखित महतारीं।
जनु सुबेलि अवली हिम मारी।
पुरजन सकल सराहहिं भागा॥
देखीं राम दुखित महतारीं।
जनु सुबेलि अवली हिम मारी।
समस्त पुरवासी प्रेममें उमँगकर केवटसे मिलकर [उसके] भाग्यकी सराहना करते हैं। श्रीरामचन्द्रजीने सब माताओंको दुःखी देखा। मानो सुन्दर लताओंकी पंक्तियोंको पाला मार गया हो॥३॥
प्रथम राम भेंटी कैकेई।
सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी।
काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥
सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी।
काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥
सबसे पहले रामजी कैकेयीसे मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्तिसे उसकी बुद्धिको तर कर दिया। फिर चरणोंमें गिरकर काल, कर्म और विधाताके सिर दोष मँढ़कर, श्रीरामजीने उनको सान्त्वना दी॥४॥
भेंटी रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥२४४॥
फिर श्रीरघुनाथजी सब माताओंसे मिले। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर सन्तोष कराया कि हे माता ! जगत् ईश्वरके अधीन है, किसीको भी दोष नहीं देना चाहिये॥ २४४॥
गुरतिय पद बंदे दुहु भाई।
सहित बिप्रतिय जे सँग आईं।
गंग गौरि सम सब सनमानीं।
देहिं असीस मुदित मृदु बानी।।
सहित बिप्रतिय जे सँग आईं।
गंग गौरि सम सब सनमानीं।
देहिं असीस मुदित मृदु बानी।।
फिर दोनों भाइयोंने ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंसहित-जो भरतजीकेसाथ आयी थीं, गुरुजीकी पत्नी अरुन्धतीजीके चरणोंकी वन्दना की और उन सबका गङ्गाजी तथा गौरीजीके समान सम्मान किया। वे सब आनन्दित होकर कोमल वाणीसे आशीर्वाद देने लगीं ॥१॥
गहि पद लगे सुमित्रा अंका।
जनु भेंटी संपति अति रंका॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता।
परे पेम ब्याकुल सब गाता॥
जनु भेंटी संपति अति रंका॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता।
परे पेम ब्याकुल सब गाता॥
तब दोनों भाई पैर पकड़कर सुमित्राजीकी गोदमें जा चिपटे। मानो किसी अत्यन्त दरिद्रको सम्पत्तिसे भेंट हो गयी हो। फिर दोनों भाई माता कौसल्याजीके चरणोंमें गिर पड़े। प्रेमके मारे उनके सारे अंग शिथिल हैं ॥२॥
अति अनुराग अंब उर लाए।
नयन सनेह सलिल अन्हवाए।
तेहि अवसर कर हरष बिषादू।
किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥
नयन सनेह सलिल अन्हवाए।
तेहि अवसर कर हरष बिषादू।
किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥
बड़े ही स्नेहसे माताने उन्हें हृदयसे लगा लिया और नेत्रोंसे बहे हुए प्रेमाश्रुओंके जलसे उन्हें नहला दिया। उस समयके हर्ष और विषादको कवि कैसे कहे ? जैसे गूंगा स्वादको कैसे बतावे? ॥३॥
मिलि जननिहि सानुज रघुराऊ।
गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ।
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू।
जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥
गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ।
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू।
जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥
श्रीरघुनाथजीने छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित माता कौसल्यासे मिलकर गुरुसे कहा कि आश्रमपर पधारिये। तदनन्तर मुनीश्वर वसिष्ठजीकी आज्ञा पाकर अयोध्यावासी सब लोग जल और थलका सुभीता देख-देखकर उतर गये ॥४॥
महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ।
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ॥२४५॥
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ॥२४५॥
ब्राह्मण, मन्त्री, माताएँ और गुरु आदि गिने-चुने लोगोंको साथ लिये हुए, भरतजी, लक्ष्मणजी और श्रीरघुनाथजी पवित्र आश्रमको चले॥२४५ ॥
सीय आइ मुनिबर पग लागी।
उचित असीस लही मन मागी॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥
उचित असीस लही मन मागी॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥
सीताजी आकर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीके चरणों लगी और उन्होंने मनमाँगी उचित आशिष पायी। फिर मुनियोंकी स्त्रियोंसहित गुरुपत्नी अरुन्धतीजीसे मिलीं। उनका जितना प्रेम था, वह कहा नहीं जाता ॥१॥
बंदि बंदि पग सिय सबही के।
आसिरबचन लहे प्रिय जी के॥
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारी।
आसिरबचन लहे प्रिय जी के॥
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारी।
सीताजीने सभीके चरणोंकी अलग-अलग वन्दना करके अपने हृदयको प्रिय (अनुकूल) लगनेवाले आशीर्वाद पाये। जब सुकुमारी सीताजीने सब सासुओंको देखा, तब उन्होंने सहमकर अपनी आँखें बंद कर ली ॥ २॥
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं।
काह कीन्ह करतार कुचालीं।
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा।
सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥
काह कीन्ह करतार कुचालीं।
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा।
सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥
[सासुओंकी बुरी दशा देखकर उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो राजहंसिनियाँ बधिकके वशमें पड़ गयी हों। [मनमें सोचने लगीं कि] कुचाली विधाताने क्या कर डाला? उन्होंने भी सीताजीको देखकर बड़ा दुःख पाया। [सोचा] जो कुछ दैव सहावे, वह सब सहना ही पड़ता है ॥३॥
जनकसुता तब उर धरि धीरा।
नील नलिन लोयन भरि नीरा॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई।
तेहि अवसर करुना महि छाई।
नील नलिन लोयन भरि नीरा॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई।
तेहि अवसर करुना महि छाई।
तब जानकीजी हृदयमें धीरज धरकर, नील कमलके समान नेत्रोंमें जल भरकर, सब सासुओंसे जाकर मिली। उस समय पृथ्वीपर करुणा (करुण-रस) छा गयी॥४॥
लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग।
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥२४६॥
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥२४६॥
सीताजी सबके पैरों लग-लगकर अत्यन्त प्रेमसे मिल रही हैं, और सब सासुएँ स्नेहवश हृदयसे आशीर्वाद दे रही हैं कि तुम सुहागसे भरी रहो (अर्थात् सदा सौभाग्यवती रहो) ॥२४६॥
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं।
बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा।
कहे कछुक परमारथ गाथा।
बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा।
कहे कछुक परमारथ गाथा।
सीताजी और सब रानियाँ स्नेहके मारे व्याकुल हैं। तब ज्ञानी गुरुने सबको बैठ जानेके लिये कहा। फिर मुनिनाथ वसिष्ठजीने जगत्की गतिको मायिक कहकर (अर्थात् जगत् मायाका है, इसमें कुछ भी नित्य नहीं है, ऐसा कहकर) कुछ परमार्थकी कथाएँ (बातें) कहीं॥१॥
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा।
सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा।।
मरन हेतु निज नेहु बिचारी।
भे अति बिकल धीर धुर धारी॥
सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा।।
मरन हेतु निज नेहु बिचारी।
भे अति बिकल धीर धुर धारी॥
तदनन्तर वसिष्ठजीने राजा दशरथजीके स्वर्गगमनकी बात सुनायी, जिसे सुनकर रघुनाथजीने दुःसह दुःख पाया। और अपने प्रति उनके स्नेहको उनके मरनेका कारण विचारकर धीरधुरन्धर श्रीरामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हो गये॥२॥
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी।
बिलपत लखन सीय सब रानी॥
सोक बिकल अति सकल समाजू।
मानहुँ राजु अकाजेउ आजू॥
बिलपत लखन सीय सब रानी॥
सोक बिकल अति सकल समाजू।
मानहुँ राजु अकाजेउ आजू॥
वज्रके समान कठोर, कड़वी वाणी सुनकर लक्ष्मणजी, सीताजी और सब रानियाँ विलाप करने लगीं। सारा समाज शोकसे अत्यन्त व्याकुल हो गया! मानो राजा आज ही मरे हों॥३॥
मुनिबर बहुरि राम समुझाए।
सहित समाज सुसरित नहाए।
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा।
मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥
सहित समाज सुसरित नहाए।
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा।
मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥
फिर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीने श्रीरामजीको समझाया। तब उन्होंने समाजसहित श्रेष्ठ नदी मन्दाकिनीजीमें स्नान किया। उस दिन प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने निर्जल व्रत किया। मुनि वसिष्ठजीके कहनेपर भी किसीने जल ग्रहण नहीं किया ॥४॥
भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह ॥२४७॥
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह ॥२४७॥
दूसरे दिन सबेरा होनेपर मुनि वसिष्ठजीने श्रीरघुनाथजीको जो-जो आज्ञा दी, वह सब कार्य प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने श्रद्धा-भक्तिसहित आदरके साथ किया ॥ २४७॥
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी।
भे पुनीत पातक तम तरनी॥
जासु नाम पावक अघ तूला।
सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥
वेदोंमें जैसा कहा गया है, उसीके अनुसार पिता की क्रिया करके, पापरूपी अन्धकारके नष्ट करनेवाले सूर्यरूप श्रीरामचन्द्रजी शुद्ध हुए ! जिनका नाम पापरूपी रूई के [तुरंत जला डालनेके] लिये अग्नि है; और जिनका स्मरणमात्र समस्त शुभ मङ्गलोंका मूल है, ॥१॥
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस।
तीरथ आवाहन सुरसरि जस॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते।
बोले गुर सन राम पिरीते॥
तीरथ आवाहन सुरसरि जस॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते।
बोले गुर सन राम पिरीते॥
वे [नित्य शुद्ध-बुद्ध] भगवान् श्रीरामजी शुद्ध हुए! साधुओंकी ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना वैसे ही है जैसा तीर्थों के आवाहनसे गङ्गाजी शुद्ध होती हैं! (गङ्गाजी तो स्वभावसे ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थोंका आवाहन किया जाता है उलटे वे ही गङ्गाजीके सम्पर्कमें आनेसे शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार सच्चिदानन्दरूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संसर्गसे कर्म ही शुद्ध हो गये।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गये तब श्रीरामचन्द्रजी प्रीतिके साथ गुरुजीसे बोले- ॥२॥
नाथ लोग सब निपट दुखारी।
कंद मूल फल अंबु अहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता।
देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।
कंद मूल फल अंबु अहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता।
देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।
हे नाथ! सब लोग यहाँ अत्यन्त दु:खी हो रहे हैं। कन्द, मूल, फल और जलका ही आहार करते हैं। भाई शत्रुघ्नसहित भरतको, मन्त्रियोंको और सब माताओंको देखकर मुझे एक-एक पल युगके समान बीत रहा है ॥ ३ ॥
सब समेत पुर धारिअ पाऊ।
आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई।
उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥
आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई।
उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥
अतः सबके साथ आप अयोध्यापुरीको पधारिये (लौट जाइये)। आप यहाँ हैं, और राजा अमरावती (स्वर्ग) में हैं (अयोध्या सूनी है)! मैंने बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढिठाई की है। हे गोसाईं ! जैसा उचित हो, वैसा ही कीजिये ॥४॥
धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥२४८॥
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥२४८॥
[वसिष्ठजीने कहा-] हे राम! तुम धर्मके सेतु और दयाके धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न कहो? लोग दु:खी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शान्ति लाभ कर लें। २४८ ॥
राम बचन सुनि सभय समाजू।
जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला।
भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला।
जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला।
भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला।
श्रीरामजीके वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो। परन्तु जब उन्होंने गुरु वसिष्ठजीकी श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी, तो उस जहाजके लिये मानो हवा अनुकूल हो गयी॥१॥
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं।
जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि।
निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥
जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि।
निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥
सब लोग पवित्र पयस्विनी नदीमें [अथवा पयस्विनी नदीके पवित्र जलमें] तीनों समय (सबेरे, दोपहर और सायंकाल) स्नान करते हैं, जिसके दर्शनसे ही पापोंके समूह नष्ट हो जाते हैं और मङ्गलमूर्ति श्रीरामचन्द्रजीको दण्डवत्-प्रणाम कर-करके उन्हें नेत्र भर-भरकर देखते हैं ॥२॥
To give your reviews on this book, Please Login