श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
भरतजी मन्दाकिनी-स्नान, चित्रकूट पहुँचना, भरतादि सबका परस्पर मिलाप, पिता का शोक और श्राद्ध
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी।
अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए।
मंदाकिनी पुनीत नहाए॥
अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए।
मंदाकिनी पुनीत नहाए॥
लक्ष्मणजी, श्रीरामचन्द्रजी और सीताजीने देवताओंकी वाणी सुनकर अत्यन्त सुख पाया, जो वर्णन नहीं किया जा सकता। यहाँ भरतजीने सारे समाजके साथ पवित्र मन्दाकिनीमें स्नान किया ॥२॥
सरित समीप राखि सब लोगा।
मागि मातु गुर सचिव नियोगा।
चले भरतु जहँ सिय रघुराई।
साथ निषादनाथु लघु भाई॥
मागि मातु गुर सचिव नियोगा।
चले भरतु जहँ सिय रघुराई।
साथ निषादनाथु लघु भाई॥
फिर सबको नदीके समीप ठहराकर तथा माता, गुरु और मन्त्रीकी आज्ञा माँगकर निषादराज और शत्रुघ्नको साथ लेकर भरतजी वहाँको चले जहाँ श्रीसीताजी और
श्रीरघुनाथजी थे॥३॥
समुझि मातु करतब सकुचाहीं।
करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥
भरतजी अपनी माता कैकेयीकी करनीको समझकर (याद करके) सकुचाते हैं और मनमें करोड़ों (अनेकों) कुतर्क करते हैं [सोचते हैं-] श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी मेरा नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी जगह उठकर न चले जायँ॥४॥
मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर ॥२३३॥
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर ॥२३३॥
मुझे माताके मतमें मानकर वे जो कुछ भी करें सो थोड़ा है, पर वे अपनी ओर समझकर (अपने विरद और सम्बन्धको देखकर) मेरे पापों और अवगुणोंको क्षमा करके मेरा आदर ही करेंगे॥ २३३ ॥
जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी।
जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥
मोरें सरन रामहि की पनही।
राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥
जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥
मोरें सरन रामहि की पनही।
राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥
चाहे मलिन-मन जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें (कछ भी करें): मेरे तो श्रीरामचन्द्रजीकी जतियाँ ही शरण हैं। श्रीरामचन्द्रजी तो अच्छे स्वामी हैं, दोष तो सब दासका ही है॥१॥
जग जस भाजन चातक मीना।
नेम पेम निज निपुन नबीना।
अस मन गुनत चले मग जाता।
सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता।।
नेम पेम निज निपुन नबीना।
अस मन गुनत चले मग जाता।
सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता।।
जगत्में यशके पात्र तो चातक और मछली ही हैं, जो अपने नेम और प्रेमको सदा नया बनाये रखने में निपुण हैं। ऐसा मनमें सोचते हुए भरतजी मार्गमें चले जाते हैं। उनके सब अङ्ग संकोच और प्रेमसे शिथिल हो रहे हैं ॥२॥
फेरति मनहुँ मातु कृत खोरी।
चलत भगति बल धीरज धोरी॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ।
तब पथ परत उताइल पाऊ॥
चलत भगति बल धीरज धोरी॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ।
तब पथ परत उताइल पाऊ॥
माताकी की हुई बुराई मानो उन्हें लौटाती है, पर धीरजकी धुरीको धारण करनेवाले भरतजी भक्तिके बलसे चले जाते हैं। जब श्रीरघुनाथजीके स्वभावको समझते (स्मरण करते) हैं तब मार्गमें उनके पैर जल्दी-जल्दी पड़ने लगते हैं ॥३॥
भरत दसा तेहि अवसर कैसी।
जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥
भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥
उस समय भरतकी दशा कैसी है ? जैसी जलके प्रवाहमें जलके भौंरेकी गति होती है। भरतजी का सोच और प्रेम देखकर उस समय निषाद विदेह हो गया (देहकी सुध-बुध भूल गया) ॥४॥
लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥२३४॥
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥२३४॥
मङ्गल-शकुन होने लगे। उन्हें सुनकर और विचारकर निषाद कहने लगा-सोच मिटेगा, हर्ष होगा, पर फिर अन्तमें दुःख होगा ॥ २३४ ॥
सेवक बचन सत्य सब जाने।
आश्रम निकट जाइ निअराने।
भरत दीख बन सैल समाजू।
मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥
आश्रम निकट जाइ निअराने।
भरत दीख बन सैल समाजू।
मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥
भरतजीने सेवक (गुह) के सब वचन सत्य जाने और वे आश्रमके समीप जा पहुँचे। वहाँके वन और पर्वतोंके समूहको देखा तो भरतजी इतने आनन्दित हुए मानो कोई भूखा अच्छा अन्न (भोजन) पा गया हो ॥१॥
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी।
त्रिविध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी।
होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥
त्रिविध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी।
होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥
जैसे ईतिके भयसे दुःखी हुई और तीनों (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) तापों तथा क्रूर ग्रहों और महामारियोंसे पीड़ित प्रजा किसी उत्तम देश और उत्तम राज्यमें जाकर सुखी हो जाय, भरतजीकी गति (दशा) ठीक उसी प्रकारको हो रही है ॥२॥
[अधिक जल बरसना, न बरसना, चूहोंका उत्पात, टिड्डियाँ. तोते और दूसरे राजाकी चढ़ाई-खेतोंमें बाधा देनेवाले इन छ: उपद्रवोंको ईति' कहते हैं।]
राम बास बन संपति भ्राजा।
सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू।
बिपिन सुहावन पावन देसू॥
सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू।
बिपिन सुहावन पावन देसू॥
श्रीरामचन्द्रजीके निवाससे वनको सम्पत्ति ऐसी सुशोभित है मानो अच्छे राजाको पाकर प्रजा सुखी हो। सुहावना वन ही पवित्र देश है। विवेक उसका राजा है और वैराग्य मन्त्री है ॥ ३॥
भट जम नियम सैल रजधानी।
सांति सुमति सुचि सुंदर रानी।
सकल अंग संपन्न सुराऊ।
राम चरन आश्रित चित चाऊ॥
सांति सुमति सुचि सुंदर रानी।
सकल अंग संपन्न सुराऊ।
राम चरन आश्रित चित चाऊ॥
यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) तथा नियम (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान) योद्धा हैं। पर्वत राजधानी है, शान्ति तथा सुबुद्धि दो सुन्दर पवित्र रानियाँ हैं। वह श्रेष्ठ राजा राज्यके सब अङ्गोंसे पूर्ण है और श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंके आश्रित रहनेसे उसके चित्तमें चाव (आनन्द या उत्साह) है॥४॥
[स्वामी, अमात्य, सुहृद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना-राज्यके ये सात अङ्ग हैं।]
जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरै सुख संपदा सुकालु ॥२३५।।
करत अकंटक राजु पुरै सुख संपदा सुकालु ॥२३५।।
मोहरूपी राजाको सेनासहित जीतकर विवेकरूपी राजा निष्कण्टक राज्य कर रहा है। उसके नगरमें सुख, सम्पत्ति और सुकाल वर्तमान है ॥ २३५ ॥
बन प्रदेस मुनि बास घनेरे।
जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना।
प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥
जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना।
प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥
वनरूपी प्रान्तोंमें जो मुनियोंके बहुत-से निवासस्थान हैं वही मानो शहरों, नगरों, गाँवों और खेड़ोंका समूह है। बहुत से विचित्र पक्षी और अनेकों पशु ही मानो प्रजाओंका समाज है. जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ १॥
खगहा करि हरि बाघ बराहा।
देखि महिष बृष साजु सराहा।
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा।
जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥
देखि महिष बृष साजु सराहा।
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा।
जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥
गैंडा, हाथी, सिंह, बाघ, सूअर, भैंसे और बैलोंको देखकर राजाके साजको सराहते ही बनता है। ये सब आपसका वैर छोड़कर जहाँ-तहाँ एक साथ विचरते हैं। यही मानो चतुरङ्गिणी सेना है ॥२॥
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं।
मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन।
कूजत मंजु मराल मुदित मन।।
मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन।
कूजत मंजु मराल मुदित मन।।
पानीके झरने झर रहे हैं और मतवाले हाथी चिंघाड़ रहे हैं। वे ही मानो वहाँ अनेकों प्रकारके नगाड़े बज रहे हैं। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयलोंके समूह
और सुन्दर हंस प्रसन्न मनसे कूज रहे हैं ॥ ३ ॥
अलिगन गावत नाचत मोरा।
जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला।
सब समाजु मुद मंगल मूला।।
जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला।
सब समाजु मुद मंगल मूला।।
भौरोंके समूह गुंजार कर रहे हैं और मोर नाच रहे हैं। मानो उस अच्छे राज्यमें चारों ओर मङ्गल हो रहा है। बेल, वृक्ष, तृण सब फल और फूलोंसे युक्त हैं। सारा समाज आनन्द और मङ्गलका मूल बन रहा है ॥ ४॥
राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिराने नेमु॥२३६ ॥
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिराने नेमु॥२३६ ॥
श्रीरामजीके पर्वतकी शोभा देखकर भरतजीके हृदयमें अत्यन्त प्रेम हुआ। जैसे तपस्वी नियमकी समाप्ति होनेपर तपस्याका फल पाकर सुखी होता है।। २३६ ॥
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई।
कहेउ भरत सन भुजा उठाई।
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला।
पाकरि जंब रसाल तमाला॥
कहेउ भरत सन भुजा उठाई।
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला।
पाकरि जंब रसाल तमाला॥
तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरतजीसे कहने लगा हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमालके विशाल वृक्ष दिखायी देते हैं, ॥१॥
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा।
मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्लव फल लाला।
अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥
मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्लव फल लाला।
अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥
जिन श्रेष्ठ वृक्षोंके बीचमें एक सुन्दर विशाल बड़का वृक्ष सुशोभित है, जिसको देखकर मन मोहित हो जाता है, उसके पत्ते नीले और सघन हैं और उसमें लाल फल लगे हैं। उसकी घनी छाया सब ऋतुओंमें सुख देनेवाली है ॥२॥
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी।
बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई।
रघुबर परनकुटी जहँ छाई।।
बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई।
रघुबर परनकुटी जहँ छाई।।
मानो ब्रह्माजीने परम शोभाको एकत्र करके अन्धकार और लालिमामयी राशि सी रच दी है। हे गुसाईं ! ये वृक्ष नदीके समीप हैं, जहाँ श्रीरामकी पर्णकुटी छायी है ॥३॥
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए।
कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए।
बट छायाँ बेदिका बनाई।
सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥
कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए।
बट छायाँ बेदिका बनाई।
सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥
वहाँ तुलसीजीके बहुत-से सुन्दर वृक्ष सुशोभित हैं, जो कहीं-कहीं सीताजीने और कहीं लक्ष्मणजीने लगाये हैं। इसी बड़की छायामें सीताजीने अपने करकमलोंसे सुन्दर वेदी बनायी है ॥४॥
जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥२३७॥
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥२३७॥
जहाँ सुजान श्रीसीतारामजी मुनियोंके वृन्दसमेत बैठकर नित्य शास्त्र, वेद और पुराणोंके सब कथा-इतिहास सुनते हैं।। २३७॥
सखा बचन सुनि बिटप निहारी।
उमगे भरत बिलोचन बारी।।
करत प्रनाम चले दोउ भाई।
कहत प्रीति सारद सकुचाई॥
उमगे भरत बिलोचन बारी।।
करत प्रनाम चले दोउ भाई।
कहत प्रीति सारद सकुचाई॥
सखाके वचन सुनकर और वृक्षोंको देखकर भरतजीके नेत्रोंमें जल उमड़ आया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेमका वर्णन करनेमें सरस्वतीजी भी सकुचाती हैं ॥ १ ॥
हरषहिं निरखि राम पद अंका।
मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
स्ज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं।
रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥
मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
स्ज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं।
रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥
श्रीरामचन्द्रजीके चरणचिह्न देखकर दोनों भाई ऐसे हर्षित होते हैं मानो दरिद्र पारस पा गया हो। वहाँकी रजको मस्तकपर रखकर हृदयमें और नेत्रोंमें लगाते हैं और श्रीरघुनाथजीके मिलनेके समान सुख पाते हैं ॥ २ ॥
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