श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
श्रीसीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश
जगदंबिका रूप गुन खानी॥
उपमा सकल मोहि लघु लागी ।
प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।
रूप और गुणोंकी खान जगज्जननी जानकीजीकी शोभाका वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिये मुझे [काव्यकी] सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं; क्योंकि वे लौकिक स्त्रियोंके अंगोंसे अनुराग रखनेवाली हैं (अर्थात् वे जगतकी स्त्रियोंके अंगोंको दी जाती हैं)। [काव्यकी उपमाएँ सब त्रिगुणात्मक, मायिक जगतसे ली गयी हैं, उन्हें भगवानकी स्वरूपाशक्ति श्रीजानकीजीके अप्राकृत, चिन्मय अंगोंके लिये प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपनेको उपहासास्पद बनाना है] ॥१॥
कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
जौं पटतरिअ तीय सम सीया।
जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥
सीताजीके वर्णनमें उन्हीं उपमाओंको देकर कौन कुकवि कहलाये और अपयशका भागी बने (अर्थात् सीताजीके लिये उन उपमाओंका प्रयोग करना सुकविके पदसे च्युत होना और अपकीर्ति मोल लेना है, कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं करेगा)। यदि किसी स्त्रीके साथ सीताजीकी तुलना की जाय तो जगतमें ऐसी सुन्दर युवती है ही कहाँ [जिसकी उपमा उन्हें दी जाय] ॥२॥
रति अति दुखित अतनु पति जानी।
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही।
कहिअ रमासम किमि बैदेही॥
[पृथ्वीकी स्त्रियोंकी तो बात ही क्या, देवताओंकी स्त्रियोंको भी यदि देखा जाय तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुन्दर हैं, तो उनमें] सरस्वती तो बहुत बोलनेवाली हैं। पार्वती अर्धांगिनी हैं (अर्थात् अर्द्धनारीनटेश्वरके रूपमें उनका आधा ही अंग स्त्रीका है, शेष आधा अंग पुरुष-शिवजीका है), कामदेवकी स्त्री रति पतिको बिना शरीरका (अनंग) जानकर बहुत दुःखी रहती है और जिनके विष और मद्य जैसे [समुद्रसे उत्पन्न होनेके नाते] प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मीके समान तो जानकीजीको कहा ही कैसे जाय ॥३॥
परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू ।
मथै पानि पंकज निज मारू॥
[जिन लक्ष्मीजीकी बात ऊपर कही गयी है वे निकली थीं खारे समुद्रसे, जिसको मथनेके लिये भगवानने अति कर्कश पीठवाले कच्छपका रूप धारण किया, रस्सी बनायी गयी महान् विषधर वासुकि नागकी, मथानीका कार्य किया अतिशय कठोर मन्दराचल पर्वतने और उसे मथा सारे देवताओं और दैत्योंने मिलकर। जिन लक्ष्मीको अतिशय शोभाकी खान और अनुपम सुन्दरी कहते हैं, उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुन्दर एवं स्वाभाविक ही कठोर उपकरण। ऐसे उपकरणोंसे प्रकट हुई लक्ष्मी श्रीजानकीजीकी समताको कैसे पा सकती हैं। हाँ, इसके विपरीत] यदि छबिरूपी अमृतका समुद्र हो, परम रूपमय कच्छप हो, शोभारूप रस्सी हो, शृंगार [रस] पर्वत हो और [उस छबिके समुद्रको] स्वयं कामदेव अपने ही करकमलसे मथे॥ ४ ॥
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥२४७॥
इस प्रकार (का संयोग होनेसे) जब सुन्दरता और सुखकी मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो, तो भी कवि लोग उसे (बहुत) संकोचके साथ सीताजीके समान कहेंगे॥ २४७ ॥
[जिस सुन्दरताके समुद्रको कामदेव मथेगा वह सुन्दरता भी प्राकृत, लौकिक सुन्दरता ही होगी; क्योंकि कामदेव स्वयं भी त्रिगुणमयी प्रकृतिका ही विकार है। अतः उस सुन्दरताको मथकर प्रकट की हुई लक्ष्मी भी उपर्युक्त लक्ष्मीकी अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर और दिव्य होनेपर भी होगी प्राकृत ही, अतः उसके साथ भी जानकीजीकी तुलना करना कविके लिये बड़े संकोचकी बात होगी। जिस सुन्दरतासे जानकीजीका दिव्यातिदिव्य परम दिव्य विग्रह बना है वह सुन्दरता उपर्युक्त सुन्दरतासे भिन्न अप्राकृत है-वस्तुतः लक्ष्मीजीका अप्राकृत रूप भी यही है। वह कामदेवके मथने में नहीं आ सकती और वह जानकीजीका स्वरूप ही है, अत: उनसे भिन्न नहीं, और उपमा दी जाती है भिन्न वस्तुके साथ। इसके अतिरिक्त जानकीजी प्रकट हुई हैं स्वयं अपनी महिमासे, उन्हें प्रकट करनेके लिये किसी भिन्न उपकरणकी अपेक्षा नहीं है। अर्थात् शक्ति शक्तिमान्से अभिन्न, अद्वैत-तत्त्व है,अतएव अनुपमेय है, यही गूढ़ दार्शनिक तत्त्व भक्तशिरोमणि कविने इस अभूतोपमालङ्कारके द्वारा बड़ी सुन्दरतासे व्यक्त किया है।
गावत गीत मनोहर बानी।।
सोह नवल तनु सुंदर सारी ।
जगत जननि अतुलित छबि भारी॥
सयानी सखियाँ सीताजीको साथ लेकर मनोहर वाणीसे गीत गाती हुई चलीं। सीताजीके नवल शरीरपर सुन्दर साड़ी सुशोभित है। जगजननीकी महान् छबि अतुलनीय है॥१॥
अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए।
रंगभूमि जब सिय पगु धारी ।
देखि रूप मोहे नर नारी॥
सब आभूषण अपनी-अपनी जगहपर शोभित हैं, जिन्हें सखियोंने अंग-अंगमें भलीभाँति सजाकर पहनाया है। जब सीताजीने रंगभूमिमें पैर रखा, तब उनका [दिव्य] रूप देखकर स्त्री-पुरुष-सभी मोहित हो गये ॥२॥
बरषि प्रसून अपछरा गाई॥
पानि सरोज सोह जयमाला ।
अवचट चितए सकल भुआला॥
देवताओंने हर्षित होकर नगाड़े बजाये और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगी। सीताजीके करकमलोंमें जयमाला सुशोभित है। सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे॥३॥
भए मोहबस सब नरनाहा॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई।
लगे ललकि लोचन निधि पाई।
सीताजी चकित चित्तसे श्रीरामजीको देखने लगी, तब सब राजालोग मोहके वश हो गये। सीताजीने मुनिके पास [बैठे हुए दोनों भाइयोंको देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं ( श्रीरामजीमें) जा लगे (स्थिर हो गये) ॥ ४॥
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥२४८॥
परन्तु गुरुजनोंकी लाजसे तथा बहुत बड़े समाजको देखकर सीताजी सकुचा गयीं। वे श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें लाकर सखियोंकी ओर देखने लगीं ॥ २४८ ॥
नर नारिन्ह परिहरी निमेषं।
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं ।
बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं।
श्रीरामचन्द्रजीका रूप और सीताजीकी छबि देखकर स्त्री-पुरुषोंने पलक मारना छोड़ दिया (सब एकटक उन्हींको देखने लगे)। सभी अपने मनमें सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं। मन-ही-मन वे विधातासे विनय करते हैं-- ॥१॥
मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू ।
सीय राम कर करै बिबाहू।
हे विधाता ! जनककी मूढ़ताको शीघ्र हर लीजिये और हमारी ही ऐसी सुन्दर बुद्धि उन्हें दीजिये कि जिससे बिना ही विचार किये राजा अपना प्रण छोड़कर सीताजीका विवाह रामजीसे कर दें॥२॥
हठ कीन्हें अंतहुँ उर दाहू।।
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू ।
बरु साँवरो जानकी जोगू॥
संसार उन्हें भला कहेगा, क्योंकि यह बात सब किसीको अच्छी लगती है। हठ करनेसे अन्तमें भी हृदय जलेगा। सब लोग इसी लालसामें मग्न हो रहे हैं कि जानकीजीके योग्य वर तो यह साँवला ही है॥३॥
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