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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


श्रीराम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश



सीय स्वयंबरु देखिअ जाई।
ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
लखन कहा जस भाजनु सोई ।
नाथ कृपा तव जापर होई॥


चलकर सीताजीके स्वयंवरको देखना चाहिये। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मणजीने कहा-हे नाथ! जिसपर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाईका पात्र होगा (धनुष तोड़नेका श्रेय उसीको प्राप्त होगा) ॥१॥

हरषे मुनि सब सुनि बर बानी ।
दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
पुनि मुनिबंद समेत कृपाला ।
देखन चले धनुषमख साला॥

इस श्रेष्ठ वाणीको सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए। सभीने सुख मानकर आशीर्वाद दिया। फिर मुनियोंके समूहसहित कृपालु श्रीरामचन्द्रजी धनुषयज्ञशाला देखने चले॥२॥

रंगभूमि आए दोउ भाई।
असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
चले सकल गृह काज बिसारी ।
बाल जुबान जरठ नर नारी॥


दोनों भाई रंगभूमिमें आये हैं, ऐसी खबर जब सब नगरनिवासियोंने पायी, तब बालक, जवान, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी घर और काम-काजको भुलाकर चल दिये॥३॥

देखी जनक भीर भै भारी ।
सुचि सेवक सब लिए हंकारी॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू ।
आसन उचित देहु सब काहू॥


जब जनकजीने देखा कि बड़ी भीड़ हो गयी है, तब उन्होंने सब विश्वासपात्र सेवकोंको बुलवा लिया और कहा-तुमलोग तुरंत सब लोगोंके पास जाओ और सब किसीको यथायोग्य आसन दो॥४॥

दो०- कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥२४०॥


उन सेवकोंने कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणीके) स्त्री-पुरुषोंको अपने-अपने योग्य स्थानपर बैठाया॥ २४०॥
राजकुर तेहि अवसर आए ।
मनहुँ मनोहरता तन छाए।।
गुन सागर नागर बर बीरा ।
सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥


उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आये। [वे ऐसे सुन्दर हैं] मानो साक्षात् मनोहरता ही उनके शरीरोंपर छा रही हो। सुन्दर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुणोंके समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं ॥१॥

राज समाज बिराजत रूरे ।
उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥


वे राजाओंके समाजमें ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणोंके बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभुकी मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी॥२॥

देखहिं रूप महा रनधीरा ।
मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी ।
मनहुँ भयानक मूरति भारी॥

महान् रणधीर (राजालोग) श्रीरामचन्द्रजीके रूपको ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर-रस शरीर धारण किये हुए हो। कुटिल राजा प्रभुको देखकर डर गये, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो॥३॥

रहे असुर छल छोनिप बेषा ।
तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई ।
नर भूषन लोचन सुखदाई।


छलसे जो राक्षस वहाँ राजाओंके वेषमें [बैठे] थे, उन्होंने प्रभुको प्रत्यक्ष कालके समान देखा। नगरनिवासियोंने दोनों भाइयोंको मनुष्योंके भूषणरूप और नेत्रोंको सुख देनेवाला देखा॥४॥

दो०- नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥२४१॥


स्त्रियाँ हृदयमें हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचिके अनुसार उन्हें देख रही हैं। मानो शृंगार-रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किये सुशोभित हो रहा हो ॥ २४१ ॥



बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा ।
बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें ।
सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥


विद्वानोंको प्रभु विराटपमें दिखायी दिये, जिसके बहुत-से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं। जनकजीके सजातीय (कुटुम्बी) प्रभुको किस तरह (कैसे प्रिय रूपमें) 'देख रहे हैं, जैसे सगे सजन (सम्बन्धी) प्रिय लगते हैं ॥१॥
 
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी ।
सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा ।
सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥


जनकसमेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चेके समान देख रही हैं, उनकी प्रीतिका वर्णन नहीं किया जा सकता। योगियोंको वे शान्त, शुद्ध, सम और स्वत:प्रकाश परम तत्त्वके रूपमें दीखे॥२॥

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता ।
इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया।
सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।


हरिभक्तोंने दोनों भाइयोंको सब सुखोंके देनेवाले इष्टदेवके समान देखा। सीताजी जिस भावसे श्रीरामचन्द्रजीको देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो कहने में ही नहीं आता॥३॥

उर अनुभवति न कहि सक सोऊ।
कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ ।
तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥


उस (स्नेह और सुख) का वे हृदयमें अनुभव कर रही हैं, पर वे भी उसे कह नहीं सकती। फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है। इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश श्रीरामचन्द्रजीको वैसा ही देखा॥४॥

दो०- राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥२४२॥

सुन्दर साँवले और गोरे शरीरवाले तथा विश्वभरके नेत्रोंको चुरानेवाले कोसलाधीशके कुमार राजसमाजमें [इस प्रकार] सुशोभित हो रहे हैं ।। २४२॥



सहज मनोहर मूरति दोऊ ।
कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके ।
नीरज नयन भावते जी के॥


दोनों मूर्तियाँ स्वभावसे ही (बिना किसी बनाव-श्रृंगारके) मनको हरनेवाली हैं। करोड़ों कामदेवों की उपमा भी उनके लिये तुच्छ है। उनके सुन्दर मुख शरद् [पूर्णिमा के चन्द्रमाकी भी निन्दा करनेवाले (उसे नीचा दिखानेवाले) हैं और कमलके समान नेत्र मनको बहुत ही भाते हैं ॥१॥

चितवनि चारु मार मनु हरनी ।
भावति हृदय जाति नहिं बरनी॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला।
चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला।


सुन्दर चितवन [सारे संसारके मनको हरनेवाले] कामदेवके भी मनको हरनेवाली है। वह हृदयको बहुत ही प्यारी लगती है, पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुन्दर गाल हैं, कानोंमें चञ्चल (झूमते हुए) कुण्डल हैं। ठोड़ी और अधर (ओठ) सुन्दर हैं, कोमल वाणी है ॥२॥

कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा ।
भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं।
कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥


हँसी चन्द्रमाकी किरणोंका तिरस्कार करनेवाली है। भौहें टेढ़ी और नासिका मनोहर है। [ऊँचे] चौड़े ललाटपर तिलक झलक रहे हैं (दीप्तिमान् हो रहे हैं)। [काले घुघराले] बालोंको देखकर भौंरोंकी पंक्तियाँ भी लजा जाती हैं ॥३॥

पीत चौतनी सिरन्हि सुहाई।
कुसुम कली बिच बीच बनाईं।
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ ।
जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवा।


पीली चौकोनी टोपियाँ सिरोंपर सुशोभित हैं, जिनके बीच-बीचमें फूलोंकी कलियाँ बनायी (काढ़ी) हुई हैं। शङ्खके समान सुन्दर (गोल) गलेमें मनोहर तीन रेखाएँ हैं, जो मानो तीनों लोकोंकी सुन्दरताकी सीमा [को बता रही हैं ॥४॥

दो०- कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥२४३॥


हृदयोंपर गजमुक्ताओंके सुन्दर कण्ठे और तुलसीकी मालाएँ सुशोभित हैं। उनके कंधे बैलोंके कंधेकी तरह [ऊँचे तथा पुष्ट] हैं, ऐंड (खड़े होनेकी शान) सिंहकी सी है और भुजाएँ विशाल एवं बलकी भण्डार हैं ॥ २४३॥
कटि तूनीर पीत पट बाँधे ।
कर सर धनुष बाम बर काँधे ।
पीत जग्य उपबीत सुहाए ।
नख सिख मंजु महाछबि छाए॥


कमरमें तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं। [दाहिने] हाथोंमें बाण और बायें सुन्दर कंधोंपर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं। नखसे लेकर शिखातक सब अंग सुन्दर हैं, उनपर महान् शोभा छायी हुई है ॥ १॥

देखि लोग सब भए सुखारे ।
एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई ।
मुनि पद कमल गहे तब जाई॥


उन्हें देखकर सब लोग सुखी हुए। नेत्र एकटक (निमेषशून्य) हैं और तारे (पुतलियाँ) भी नहीं चलते। जनकजी दोनों भाइयोंको देखकर हर्षित हुए। तब उन्होंने जाकर मुनिके चरणकमल पकड़ लिये॥२॥

करि बिनती निज कथा सुनाई।
रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुर बर दोऊ ।
तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥


विनती करके अपनी कथा सुनायी और मुनिको सारी रंगभूमि (यज्ञशाला) दिखलायी। [मुनिके साथ] दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब कोई आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं ॥ ३॥

निज निज रुख रामहि सब देखा ।
कोउ न जान कछु मरम बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ ।
राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥


सबने रामजीको अपनी-अपनी ओर ही मुख किये हुए देखा; परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका। मुनिने राजासे कहा-रंगभूमिकी रचना बड़ी सुन्दर है। [विश्वामित्र-जैसे नि:स्पृह, विरक्त और ज्ञानी मुनिसे रचनाकी प्रशंसा सुनकर] राजा प्रसन्न हुए और उन्हें बड़ा सुख मिला ॥ ४ ॥

दो०- सब मंचन्ह तें मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥२४४॥


सब मञ्चोंसे एक मञ्च अधिक सुन्दर, उज्ज्वल और विशाल था। [स्वयं] राजाने मुनिसहित दोनों भाइयोंको उसपर बैठाया॥२४४॥

प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे ।
जनु राकेस उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं।
राम चाप तोरब सक नाहीं॥

प्रभुको देखकर सब राजा हृदयमें ऐसे हार गये (निराश एवं उत्साहहीन हो गये) जैसे पूर्ण चन्द्रमाके उदय होनेपर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। [उनके तेजको देखकर] सबके मनमें ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुषको तोड़ेंगे, इसमें सन्देह नहीं ॥१॥

बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला ।
मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई ।
जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥

[इधर उनके रूपको देखकर सबके मनमें यह निश्चय हो गया कि] शिवजीके विशाल धनुषको [जो सम्भव है न टूट सके] बिना तोड़े भी सीताजी श्रीरामचन्द्रजीके ही गलेमें जयमाल डालेंगी (अर्थात् दोनों तरहसे ही हमारी हार होगी और विजय श्रीरामचन्द्रजीके हाथ रहेगी)। [यों सोचकर वे कहने लगे-] हे भाई! ऐसा विचारकर यश, प्रताप. बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो॥२॥

बिहसे अपर भूप सुनि बानी ।
जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा ।
बिनु तोरें को कुरि बिआहा॥


दूसरे राजा, जो अविवेकसे अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हँसे। [उन्होंने कहा-] धनुष तोड़नेपर भी विवाह होना कठिन है (अर्थात् सहजहीमें हम जानकीको हाथसे जाने नहीं देंगे) फिर बिना तोड़े तो राजकुमारीको ब्याह ही कौन सकता है ॥३॥

एक बार कालउ किन होऊ।
सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने ।
धरमसील हरिभगत सयाने॥


काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीताक लिये उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे। यह घमण्डकी बात सुनकर दूसरे राजा. जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुसकराये ॥४॥

सो०-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे।। २४५॥


[उन्होंने कहा-] राजाओंके गर्व दूर करके (जो धनुष किसीसे नहीं टूट सकेगा उसे तोड़कर) श्रीरामचन्द्रजी सीताजीको ब्याहेंगे। [रही युद्धकी बात, सो] महाराज दशरथके रणमें बाँके पुत्रोंको युद्धमें तो जीत ही कौन सकता है ॥ २४५ ॥
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई ।
मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता ।
जगदंबा जानहु जियँ सीता॥


गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो। मनके लड्डुओंसे भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीखको सुनकर सीताजीको अपने जीमें साक्षात् जगजननी समझो (उन्हें पत्नीरूपमें पानेकी आशा एवं लालसा छोड़ दो), ॥ १॥

जगत पिता रघुपतिहि बिचारी।
भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी।
ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥


और श्रीरघुनाथजीको जगतका पिता (परमेश्वर) विचारकर, नेत्र भरकर उनकी छबि देख लो [ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा] । सुन्दर, सुख देनेवाले और समस्त गुणोंकी राशि ये दोनों भाई शिवजीके हृदयमें बसनेवाले हैं (स्वयं शिवजी भी जिन्हें सदा हृदयमें छिपाये रखते हैं, वे तुम्हारे नेत्रोंके सामने आ गये हैं)॥२॥

सुधा समुद्र समीप बिहाई ।
मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा ।
हम तौ आजु जनम फलु पावा।


समीप आये हुए (भगवद्दर्शनरूप) अमृतके समुद्रको छोड़कर तुम [जगजननी जानकीको पत्नीरूपमें पानेकी दुराशारूप मिथ्या] मृगजलको देखकर दौड़कर क्यों मरते हो? फिर [भाई !] जिसको जो अच्छा लगे वही जाकर करो। हमने तो [श्रीरामचन्द्रजीके दर्शन करके ] आज जन्म लेनेका फल पा लिया (जीवन और जन्मको सफल कर लिया) ॥३॥

अस कहि भले भूप अनुरागे ।
रूप अनूप बिलोकन लागे।
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना ।
बरषहिं सुमन करहिं कल गाना।


ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेममग्न होकर श्रीरामजीका अनुपम रूप देखने लगे। [मनुष्योंकी तो बात ही क्या] देवता लोग भी आकाशसे विमानोंपर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और सुन्दर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं ॥ ४॥

दो०- जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर सखी सुंदर सकल सादर चली लवाइ॥२४६ ॥


तब सुअवसर जानकर जनकजीने सीताजीको बुला भेजा। सब चतुर और सुन्दर सखियाँ आदरपूर्वक उन्हें लिवा चलीं ॥ २४६ ॥


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