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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


श्रीसीताजी का पार्वती-पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण-संवाद



चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन ।
लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई।
गिरिजा पूजन जननि पठाई।


चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियोंसे पूछकर वे प्रसन्न मनसे पत्र-पुष्प लेने लगे। उसी समय सीताजी वहाँ आयीं। माताने उन्हें गिरिजा (पार्वती) जीकी पूजा करनेके लिये भेजा था॥१॥

संग सखीं सब सुभग सयानीं।
गावहिं गीत मनोहर बानी॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा ।
बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥


साथमें सब सुन्दरी और सयानी सखियाँ हैं, जो मनोहर वाणीसे गीत गा रही हैं। सरोवरके पास गिरिजाजीका मन्दिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता; देखकर मन मोहित हो जाता है ॥२॥

मजनु करि सर सखिन्ह समेता ।
गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा ।
निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥


सखियोंसहित सरोवरमें स्नान करके सीताजी प्रसन्न मनसे गिरिजाजीके मन्दिरमें गयीं। उन्होंने बड़े प्रेमसे पूजा की और अपने योग्य सुन्दर वर माँगा ॥३॥

एक सखी सिय संगु बिहाई ।
गई रही देखन फुलवाई॥
तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई ।
प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥


एक सखी सीताजीका साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गयी थी। उसने जाकर दोनों भाइयोंको देखा और प्रेममें विह्वल होकर वह सीताजीके पास आयी॥४॥

दो०- तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥२२८॥


सखियोंने उसकी दशा देखी कि उसका शरीर पुलकित है और नेत्रोंमें जल भरा है। सब कोमल वाणीसे पूछने लगी कि अपनी प्रसन्नताका कारण बता ॥ २२८॥



देखन बागु कुऔर दुइ आए ।
बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम गौर किमि कहाँ बखानी।
गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥


[उसने कहा-] दो राजकुमार बाग देखने आये हैं। किशोर अवस्थाके हैं और सब प्रकारसे सुन्दर हैं। वे साँवले और गोरे [रंगके] हैं; उनके सौन्दर्यको मैं कैसे बखानकर कहूँ। वाणी बिना नेत्रकी है और नेत्रोंके वाणी नहीं है ॥१॥

सुनि हरषीं सब सखीं सयानी।
सिय हियँ अति उतकंठा जानी।
एक कहइ नृपसुत तेइ आली ।
सुने जे मुनि सँग आए काली॥


यह सुनकर और सीताजीके हृदयमें बड़ी उत्कण्ठा जानकर सब सयानी सखियाँ प्रसन्न हुईं। तब एक सखी कहने लगी-हे सखी! ये वही राजकुमार हैं जो सुना है कि कल विश्वामित्र मुनिके साथ आये हैं ॥२॥

जिन्ह निज रूप मोहनी डारी ।
कीन्हे स्वबस नगर नर नारी॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू।
अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥


और जिन्होंने अपने रूपकी मोहिनी डालकर नगरके स्त्री-पुरुषोंको अपने वश में  कर लिया है। जहाँ-तहाँ सब लोग उन्हींकी छबिका वर्णन कर रहे हैं। अवश्य [चलकर] उन्हें देखना चाहिये, वे देखने ही योग्य हैं ॥ ३ ॥

तासु बचन अति सियहि सोहाने ।
दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई।
प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥


उसके वचन सीताजीको अत्यन्त ही प्रिय लगे और दर्शनके लिये उनके नेत्र अकुला उठे। उसी प्यारी सखीको आगे करके सीताजी चलीं। पुरानी प्रीतिको कोई लख नहीं पाता ॥४॥

दो०- सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥२२९॥

नारदजीके वचनोंका स्मरण करके सीताजीके मनमें पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई। वे चकित होकर सब ओर इस तरह देख रही हैं मानो डरी हुई मृगछौनी इधर-उधर देख रही हो ॥ २२९ ॥



कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि ।
कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही ।
मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥


कंकण (हाथोंके कड़े), करधनी और पायजेबके शब्द सुनकर श्रीरामचन्द्रजी हृदयमें विचारकर लक्ष्मणसे कहते हैं-[यह ध्वनि ऐसी आ रही है] मानो कामदेवने विश्वको जीतनेका संकल्प करके डंकेपर चोट मारी है॥१॥

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा।
सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल ।
मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल।।


ऐसा कहकर श्रीरामजीने फिरकर उस ओर देखा। श्रीसीताजीके मुखरूपी चन्द्रमा [को निहारने] के लिये उनके नेत्र चकोर बन गये। सुन्दर नेत्र स्थिर हो गये (टकटकी लग गयी)। मानो निमि (जनकजीके पूर्वज) ने [जिनका सबकी पलकोंमें निवास माना गया है, लड़की-दामादके मिलन-प्रसङ्गको देखना उचित नहीं, इस भावसे] सकुचाकर पलकें छोड़ दीं, (पलकोंमें रहना छोड़ दिया, जिससे पलकोंका गिरना रुक गया) ॥२॥

देखि सीय सोभा सुखु पावा ।
हृदयँ सराहत बचनु न आवा।।
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई।
बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥

सीताजी की शोभा देखकर श्रीरामजीने बड़ा सुख पाया। हृदयमें वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुखसे वचन नहीं निकलते। [वह शोभा ऐसी अनुपम है] मानो ब्रह्माने अपनी सारी निपुणताको मूर्तिमान् कर संसारको प्रकट करके दिखा दिया हो॥३॥

सुंदरता कहुँ सुंदर करई।
छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी ।
केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥


वह (सीताजीकी शोभा) सुन्दरताको भी सुन्दर करनेवाली है [वह ऐसी मालूम होती है] मानो सुन्दरतारूपी घरमें दीपककी लौ जल रही हो। (अबतक सुन्दरतारूपी भवनमें अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजीकी सुन्दरतारूपी दीपशिखाको पाकर जगमगा उठा है, पहलेसे भी अधिक सुन्दर हो गया है।) सारी उपमाओंको तो कवियोंने जूंठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्रीसीताजीकी किससे उपमा दूँ॥४॥

दो०- सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥२३०॥ [


इस प्रकार] हृदयमें सीताजीकी शोभाका वर्णन करके और अपनी दशाको विचारकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी पवित्र मनसे अपने छोटे भाई लक्ष्मणसे समयानुकूल वचन बोले- ॥ २३०॥



तात जनकतनया यह सोई।
धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं।
करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं।

हे तात! यह वही जनकजीकी कन्या है जिसके लिये धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरीपूजनके लिये ले आयी हैं। यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही है॥१॥

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा ।
सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता ।
फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥


जिसकी अलौकिक सुन्दरता देखकर स्वभावसे ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें। किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मङ्गलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं ।।२।।

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ ।
मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी ।
जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥


रघुवंशियोंका यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्गपर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मनका अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने [जाग्रत्की कौन कहे] स्वप्नमें भी परायी स्त्रीपर दृष्टि नहीं डाली है।।३॥

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी ।
नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं ।
ते नरबर थोरे जग माहीं।


रणमें शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात् जो लड़ाईके मैदानसे भागते नहीं), परायी स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टिको नहीं खींच पाती और भिखारी जिनके यहाँसे 'नाही' नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसारमें थोड़े हैं ॥ ४॥

दो०- करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥२३१॥

यों श्रीरामजी छोटे भाईसे बातें कर रहे हैं, पर मन सीताजीके रूपमें लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमलके छबिरूप मकरन्द-रसको भौरेकी तरह पी रहा है ।। २३१ ।।



चितवति चकित चहूँ दिसि सीता ।
कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी ।
जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥


सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं। मन इस बातकी चिन्ता कर रहा है कि राजकुमार कहाँ चले गये। बालमृग-नयनी (मृगके छौनेकी-सी आँखवाली) सीताजी जहाँ दृष्टि डालती हैं, वहाँ मानो श्वेत कमलोंकी कतार बरस जाती है॥१॥

लता ओट तब सखिन्ह लखाए ।
स्यामल गौर किसोर सुहाए।
देखि रूप लोचन ललचाने ।
हरषे जनु निज निधि पहिचाने।


तब सखियोंने लताकी ओटमें सुन्दर श्याम और गौर कुमारोंको दिखलाया। उनके रूपको देखकर नेत्र ललचा उठे; वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होंने अपना खजाना पहचान लिया॥२॥

थके नयन रघुपति छबि देखें ।
पलकन्हिहूँ परिहरी निमेषं।
अधिक सनेहँ देह भै भोरी।
सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥


श्रीरघुनाथजीकी छबि देखकर नेत्र थकित (निश्चल) हो गये। पलकोंने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेहके कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) हो गया। मानो शरद् ऋतुके चन्द्रमाको चकोरी [बेसुध हुई] देख रही हो ॥ ३॥

लोचन मग रामहि उर आनी ।
दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी ।
कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥


नेत्रोंके रास्ते श्रीरामजीको हृदयमें लाकर चतुरशिरोमणि जानकीजीने पलकोंके किवाड़ लगा दिये (अर्थात् नेत्र मूंदकर उनका ध्यान करने लगी)। जब सखियोंने सीताजीको प्रेमके वश जाना, तब वे मनमें सकुचा गयीं; कुछ कह नहीं सकती थीं॥४॥

दो०- लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥२३२॥


उसी समय दोनों भाई लतामण्डप (कुञ्ज) में से प्रकट हुए। मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलों के पर्दे को हटाकर निकले हों। २३२ ।।



सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा ।
नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपंख सिर सोहत नीके ।
गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के।


दोनों सुन्दर भाई शोभाकी सीमा हैं। उनके शरीरकी आभा नीले और पीले कमलकी-सी है। सिरपर सुन्दर मोरपंख सुशोभित हैं। उनके बीच-बीचमें फूलोंकी कलियोंके गुच्छे लगे हैं॥१॥

भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए।
श्रवन सुभग भूषन छबि छाए।
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे ।
नव सरोज लोचन रतनारे॥


माथेपर तिलक और पसीनेकी बूंदें शोभायमान हैं। कानोंमें सुन्दर भूषणोंकी छबि छायी है। टेढ़ी भौंहें और धुंघराले बाल हैं। नये लाल कमलके समान रतनारे (लाल) नेत्र हैं॥२॥

चारु चिबुक नासिका कपोला ।
हास बिलास लेत मनु मोला॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं ।
जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥

ठोड़ी, नाक और गाल बड़े सुन्दर हैं, और हँसीकी शोभा मनको मोल लिये लेती है। मुखकी छबि तो मुझसे कही ही नहीं जाती, जिसे देखकर बहुत-से कामदेव लजा जाते हैं ॥३॥

उर मनि माल कंबु कल गीवा।
काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
सुमन समेत बम कर दोना ।
सावर कुर सखी सुठि लोना।


वक्षःस्थलपर मणियोंकी माला है। शङ्खके सदृश सुन्दर गला है। कामदेवके हाथीके बच्चेकी सँड़के समान (उतार-चढ़ाववाली एवं कोमल) भुजाएं हैं, जो बलकी सीमा हैं। जिसके बायें हाथमें फूलोंसहित दोना है, हे सखि! वह साँवला कुँवर तो बहुत ही सलोना है ॥४॥

दो०- केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥२३३॥


सिंहकी-सी (पतली, लचीली) कमरवाले, पीताम्बर धारण किये हुए, शोभा और शीलके भण्डार, सूर्यकुलके भूषण श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सखियाँ अपने-आपको भूल गयीं ॥ २३३ ॥



धरि धीरजु एक आलि सयानी।
सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू ।
भूपकिसोर देखि किन लेहू॥


एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजीसे बोली-गिरिजाजीका ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमारको क्यों नहीं देख लेतीं ॥१॥

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे ।
सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा ।
सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥

तब सीताजीने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुलके दोनों सिंहोंको अपने सामने [खड़े] देखा। नखसे शिखातक श्रीरामजीकी शोभा देखकर और फिर पिताका प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया॥२॥

परबस सखिन्ह लखी जब सीता ।
भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली ।
अस कहि मन बिहसी एक आली॥


जब सखियोंने सीताजीको परवश (प्रेमके वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगी-बड़ी देर हो गयी [अब चलना चाहिये] । कल इसी समय फिर आयेंगी, ऐसा कहकर एक सखी मनमें हँसी ॥३॥

गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी ।
भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने ।
फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥


सखीकी यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गयीं। देर हो गयी जान उन्हें माताका भय लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें ले आयीं, और [उनका ध्यान करती हुई] अपनेको पिताके अधीन जानकर लौट चलीं ॥४॥

दो०- देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥२३४॥

मृग, पक्षी और वृक्षोंको देखनेके बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्रीरामजीकी छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है (अर्थात् बहुत ही बढ़ता जाता है) ॥ २३४॥



जानि कठिन सिवचाप बिसूरति ।
चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी ।
सुख सनेह सोभा गुन खानी॥


शिवजीके धनुषको कठोर जानकर वे विसूरती (मनमें विलाप करती) हुई हृदयमें श्रीरामजीकी साँवली मूर्तिको रखकर चलीं। (शिवजीके धनुषकी कठोरताका स्मरण आनेसे उन्हें चिन्ता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोड़ेंगे, पिताके प्रणकी स्मृतिसे उनके हृदयमें क्षोभ था ही, इसलिये मनमें विलाप करने लगी। प्रेमवश ऐश्वर्यकी विस्मृति हो जानेसे ही ऐसा हुआ; फिर भगवानके बलका स्मरण आते ही वे हर्षित हो गयीं और साँवली छबिको हृदयमें धारण करके चली।) प्रभु श्रीरामजीने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणोंकी खान श्रीजानकीजीको जाती हुई जाना, ॥१॥

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही।
चारु चित्त भीती लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी ।
बंदि चरन बोली कर जोरी॥


तब परमप्रेमकी कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूपको अपने सुन्दर चित्तरूपी भित्तिपर चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजीके मन्दिरमें गयीं और उनके  चरणोंकी वन्दना करके हाथ जोड़कर बोलीं- ॥२॥

जय जय गिरिबरराज किसोरी।
जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता ।
जगत जननि दामिनि दुति गाता॥


हे श्रेष्ठ पर्वतोंके राजा हिमाचलकी पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो; हे महादेवजीके मुखरूपी चन्द्रमाकी [ओर टकटकी लगाकर देखनेवाली] चकोरी! आपकी जय हो; हे हाथीके मुखवाले गणेशजी और छः मुखवाले स्वामिकार्तिकजीकी माता! हे जगज्जननी! हे बिजलीकी-सी कान्तियुक्त शरीरवाली! आपकी जय हो!॥३॥

नहिं तव आदि मध्य अवसाना ।
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।
भव भव बिभव पराभव कारिनि ।
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥


आपका न आदि है, न मध्य है और न अन्त है। आपके असीम प्रभावको वेद भी नहीं जानते। आप संसारको उत्पत्र, पालन और नाश करनेवाली हैं। विश्वको मोहित करनेवाली और स्वतन्त्ररूपसे विहार करनेवाली हैं॥४॥

दो०- पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ॥२३५॥


पतिको इष्टदेव माननेवाली श्रेष्ठ नारियोंमें हे माता! आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार महिमाको हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते॥२३५ ।।



सेवत तोहि सुलभ फल चारी ।
बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे ।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥


हे [भक्तोंको मुँहमाँगा] वर देनेवाली! हे त्रिपुरके शत्रु शिवजीकी प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करनेसे चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवि! आपके चरणकमलोंकी पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं ॥१॥

मोर मनोरथु जानहु नीकें ।
बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं ।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं।

मेरे मनोरथको आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदयरूपी नगरीमें निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजीने उनके चरण पकड़ लिये॥२॥

बिनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सिय प्रसादु सिर धरेऊ ।
बोली गौरि हरषु हिय भरेऊ॥


गिरिजाजी सीताजीके विनय और प्रेमके वशमें हो गयीं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुसकरायी। सीताजीने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिरपर धारण किया। गौरीजीका हृदय हर्षसे भर गया और वे बोली- ॥३॥

सुनु सिय सत्य असीस हमारी ।
पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा ।
सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥


हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मन:कामना पूरी होगी। नारदजीका वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषोंसे रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा॥४॥

छं०- मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥


एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।

जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभावसे ही सुन्दर साँवला वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह दयाका खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेहको जानता है। इस प्रकार श्रीगौरीजीका आशीर्वाद सुनकर जानकीजीसमेत सब सखियाँ हृदयमें हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं-भवानीजीको बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मनसे राजमहलको लौट चलीं।।

सो०- जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥२३६॥

गौरीजीको अनुकूल जानकर सीताजीके हृदयको जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता। सुन्दर मङ्गलोंके मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे॥ २३६॥



हृदयँ सराहत सीय लोनाई।
गुर समीप गवने दोउ भाई॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं।
सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥


हृदयमें सीताजीके सौन्दर्यकी सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजीके पास गये। श्रीरामचन्द्रजीने विश्वामित्रजीसे सब कुछ कह दिया। क्योंकि उनका सरल स्वभाव है, छल तो उसे छूता भी नहीं है॥१॥

सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही ।
पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे ।
रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥


फूल पाकर मुनिने पूजा की। फिर दोनों भाइयोंको आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर श्रीराम-लक्ष्मण सुखी हुए॥२॥

करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी।
लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई।
संध्या करन चले दोउ भाई॥

श्रेष्ठ विज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएँ कहने लगे। [इतनेमें] दिन बीत गया और गुरुकी आज्ञा पाकर दोनों भाई सन्ध्या करने चले॥३॥

प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा ।
सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं।
सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥


[उधर] पूर्व दिशामें सुन्दर चन्द्रमा उदय हुआ। श्रीरामचन्द्रजीने उसे सीताके मुखके समान देखकर सुख पाया। फिर मनमें विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजीके मुखके समान नहीं है॥४॥

दो०- जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक ॥२३७॥


खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर [उसी समुद्रसे उत्पन्न होनेके कारण] विष इसका भाई; दिनमें यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलङ्की (काले दागसे युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजीके मुखकी बराबरी कैसे पा सकता है? ॥ २३७ ।।



घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई।
ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई।
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही।
अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥

फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियोंको दुःख देनेवाला है; राहु अपनी सन्धिमें पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवेको [चकवीके वियोगका] शोक देनेवाला और कमलका वैरी (उसे मुरझा देनेवाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत-से अवगुण हैं जो सीताजीमें नहीं हैं] ॥१॥

बैदेही मुख पटतर दीन्हे ।
होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी ।
गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥


अत: जानकीजीके मुखकी तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करनेका दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमाके बहाने सीताजीके मुखकी छबिका वर्णन करके, बड़ी रात हो गयी जान, वे गुरुजीके पास चले॥२॥

करि मुनि चरन सरोज प्रनामा ।
आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा।
बिगत निसा रघुनायक जागे ।
बंधु बिलोकि कहन अस लागे।


मुनिके चरणकमलोंमें प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया; रात बीतनेपर श्रीरघुनाथजी जागे और भाईको देखकर ऐसा कहने लगे- ॥३॥

उयउ अरुन अवलोकहु ताता ।
पंकज कोक लोक सुखदाता॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी।
प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥

हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसारको सुख देनेवाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मणजी दोनों हाथ जोड़कर प्रभुके प्रभावको सूचित करनेवाली कोमल वाणी बोले- ॥४॥

दो०- अरुनोदय सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन ॥२३८॥


अरुणोदय होनेसे कुमुदिनी सकुचा गयी और तारागणोंका प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गये हैं ॥ २३८॥



नृप सब नखत करहिं उजिआरी ।
टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
कमल कोक मधुकर खग नाना ।
हरषे सकल निसा अवसाना।


सब राजारूपी तारे उजाला (मन्द प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुषरूपी महान् अन्धकारको हटा नहीं सकते। रात्रिका अन्त होनेसे जैसे कमल, चकवे, भौरे और नाना प्रकारके पक्षी हर्षित हो रहे हैं ॥१॥

ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे ।
होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा ।
दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥


वैसे ही हे प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटनेपर सुखी होंगे। सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अन्धकार नष्ट हो गया। तारे छिप गये, संसारमें तेजका प्रकाश हो गया ॥२॥

रबि निज उदय ब्याज रघुराया।
प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया।
तव भुज बल महिमा उदघाटी।
प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥

हे रघुनाथजी! सूर्यने अपने उदयके बहाने सब राजाओंको प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है। आपकी भुजाओंके बलकी महिमाको उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिये ही धनुष तोड़नेकी यह पद्धति प्रकट हुई है ॥३॥

बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने ।
होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए ।
चरन सरोज सुभग सिर नाए॥


भाईके वचन सुनकर प्रभु मुसकराये। फिर स्वभावसे ही पवित्र श्रीरामजीने शौचसे निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजीके पास आये। आकर उन्होंने गुरुजीके सुन्दर चरणकमलोंमें सिर नवाया॥४॥

सतानंदु तब जनक बोलाए ।
कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए।
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई ।
हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥

तब जनकजीने शतानन्दजीको बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनिके पास भेजा। उन्होंने आकर जनकजीकी विनती सुनायी। विश्वामित्रजीने हर्षित होकर दोनों भाइयोंको बुलाया॥५॥

दो०- सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥२३९॥

शतानन्दजीके चरणोंकी वन्दना करके प्रभु श्रीरामचन्द्रजी गुरुजीके पास जा बैठे। तब मुनिने कहा-हे तात! चलो, जनकजीने बुला भेजा है ।। २३९ ॥

मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, दूसरा विश्राम

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