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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


अवतार के हेतु



अति आरति पूछउँ सुरराया।
रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी।
निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥


हे देवताओंके स्वामी ! मैं बहुत ही आर्तभाव (दीनता) से पूछती हूँ, आप मुझपर दया करके श्रीरघुनाथजीकी कथा कहिये। पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइये जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है ॥२॥

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा।
बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं।
राज तजा सो दूषन काहीं॥


फिर हे प्रभु! श्रीरामचन्द्रजीके अवतार (जन्म) की कथा कहिये तथा उनका उदार बालचरित्र कहिये। फिर जिस प्रकार उन्होंने श्रीजानकीजीसे विवाह किया, वह कथा कहिये और फिर यह बतलाइये कि उन्होंने जो राज्य छोड़ा सो किस दोष से॥३॥

बन बसि कीन्हे चरित अपारा।
कहहु नाथ जिमि रावन मारा।
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला।
सकल कहहु संकर सुखसीला॥


हे नाथ! फिर उन्होंने वनमें रहकर जो अपार चरित्र किये तथा जिस तरह रावणको मारा, वह कहिये। हे सुखस्वरूप शङ्कर ! फिर आप उन सारी लीलाओंको कहिये जो उन्होंने राज्य [सिंहासन पर बैठकर की थीं ॥ ४॥

दो०- बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥११०॥

हे कृपाधाम ! फिर वह अद्भुत चरित्र कहिये जो श्रीरामचन्द्रजीने किया-वे रघुकुलशिरोमणि प्रजासहित किस प्रकार अपने धाम को गये? ॥ ११०॥

पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी।
जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी।।
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा।
पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥

हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्वको समझाकर कहिये, जिसकी अनुभूतिमें ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं; और फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्यका विभागसहित वर्णन कीजिये॥१॥

औरउ राम रहस्य अनेका।
कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई।
सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥


[इसके सिवा] श्रीरामचन्द्रजीके और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिये। हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यन्त निर्मल है। हे प्रभो! जो बात मैंने न भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखियेगा॥२॥

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना।
आन जीव पाँवर का जाना।।
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई।
छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥


वेदोंने आपको तीनों लोकोंका गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्यको क्या जानें। पार्वतीजीके सहज सुन्दर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजीके मनको बहुत अच्छे लगे॥३॥

हर हियँ रामचरित सब आए।
प्रेम पुलक लोचन जल छाए।।
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा।
परमानंद अमित सुख पावा॥


श्रीमहादेवजीके हृदयमें सारे रामचरित्र आ गये। प्रेमके मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। श्रीरघुनाथजीका रूप उनके हृदयमें आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजीने भी अपार सुख पाया॥४॥

दो०- मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह।।१११॥

शिवजी दो घड़ीतक ध्यानके रस (आनन्द) में डूबे रहे; फिर उन्होंने मनको बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर श्रीरघुनाथजीका चरित्र वर्णन करने लगे ॥ १११ ॥

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें।
जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें।
जेहि जानें जग जाइ हेराई।
जागें जथा सपन भ्रम जाई॥

जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सीमें साँपका भ्रम हो जाता है; और जिसके जान लेनेपर जगतका उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागनेपर स्वप्नका भ्रम जाता रहता है ॥ १ ॥

बंदउँ बालरूप सोइ रामू।
सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥


मैं उन्हीं श्रीरामचन्द्रजीके बालरूपकी वन्दना करता हूँ, जिनका नाम जपनेसे सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मङ्गलके धाम, अमङ्गलके हरनेवाले और श्रीदशरथजीके आँगनमें खेलनेवाले वे (बालरूप) श्रीरामचन्द्रजी मुझपर कृपा करें॥२॥

करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी।
हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी।
तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥


त्रिपुरासुरका वध करनेवाले शिवजी श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके आनन्दमें भरकर अमृतके समान वाणी बोले-हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है ॥ ३॥

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा।
सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी।
कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी।


जो तुमने श्रीरघुनाथजीकी कथाका प्रसङ्ग पूछा है, जो कथा समस्त लोकोंके लिये जगतको पवित्र करनेवाली गङ्गाजीके समान है। तुमने जगतके कल्याणके लिये ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें प्रेम रखनेवाली हो॥४॥

दो०- राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ॥११२॥


हे पार्वती ! मेरे विचारमें तो श्रीरामजीकी कृपासे तुम्हारे मनमें स्वप्रमें भी शोक. मोह, सन्देह और भ्रम कुछ भी नहीं है ॥ ११२।।
तदपि असंका कीन्हिहु सोई।
कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना।
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥


फिर भी तुमने इसीलिये वही (पुरानी) शङ्का की है कि इस प्रसङ्गके कहने सुननेसे सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानोंसे भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानोंके छिद्र साँपके बिलके समान हैं ॥१॥

नयनन्हि संत दरस नहिं देखा।
लोचन मोरपंख कर लेखा।
ते सिर कटु तुंबरि समतूला।
जे न नमत हरि गुर पद मूला॥


जिन्होंने अपने नेत्रोंसे संतोंके दर्शन नहीं किये. उनके वे नेत्र मोरके पंखोंपर दीखनेवाली नकली आँखोंकी गिनतीमें हैं। वे सिर कड़वी तूंबीके समान हैं, जो श्रीहरि और गुरुके चरणतलपर नहीं झुकते॥२॥

जिन्ह हरिभगति हृदयें नहिं आनी।
जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना॥


जिन्होंने भगवानकी भक्तिको अपने हृदयमें स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्देके समान हैं। जो जीभ श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका गान नहीं करती, वह मेढककी जीभके समान है।। ३ ॥

कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती।
सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला।
सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥


वह हृदय वज्रके समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवानके चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! श्रीरामचन्द्रजीकी लीला सुनो, यह देवताओंका कल्याण करनेवाली और दैत्योंको विशेषरूपसे मोहित करनेवाली है।।४॥

दो०- रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥११३॥


श्रीरामचन्द्रजीकी कथा कामधेनुके समान सेवा करनेसे सब सुखोंको देनेवाली है. और सत्पुरुषोंके समाज ही सब देवताओंके लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥११३॥

रामकथा सुंदर कर तारी।
संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी।
सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥


श्रीरामचन्द्रजीकी कथा हाथकी सुन्दर ताली है, जो सन्देहरूपी पक्षियोंको उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुगरूपी वृक्षको काटनेके लिये कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो॥१॥

राम नाम गुन चरित सुहाए।
जनम करम अगनित श्रुति गाए।
जथा अनंत राम भगवाना।
तथा कथा कीरति गुन नाना।

वेदोंने श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान श्रीरामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनन्त हैं ॥२॥

तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी।
कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई।
सुखद संतसंमत मोहि भाई।


तो भी तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैंने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसीके अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वतो! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुन्दर, सुखदायक और संतसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है, ॥३॥

एक बात नहिं मोहि सोहानी।
जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना।
जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥


परन्तु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं- ॥४॥

दो०- कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥११४॥


जो मोहरूपी पिशाचके द्वारा ग्रस्त हैं, पाखण्डी हैं, भगवानके चरणोंसे विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं ॥ ११४॥

अग्य अकोबिद अंध अभागी।
काई बिषय मुकुर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी।
सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी।


जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मनरूपी दर्पणपर विषयरूपी काई जमी हुई है; जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्नमें भी संत-समाजके दर्शन नहीं किये;॥१॥

कहहिं ते बेद असंमत बानी।
जिन्ह के सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना।
राम रूप देखहिं किमि दीना॥

और जिन्हें अपनी लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं। जिनका हृदयरूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रोंसे हीन हैं, वे बेचारे श्रीरामचन्द्रजीका रूप कैसे देखें!॥२॥

जिन्ह के अगुन न सगुन बिबेका।
जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं।
तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥


जिनको निर्गुण-सगुणका कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढंत बातें बका करते हैं, जो श्रीहरिको मायाके वशमें होकर जगतमें (जन्म-मृत्युके चक्रमें) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिये कुछ भी कह डालना असम्भव नहीं है।॥ ३ ॥

बातुल भूत बिबस मतवारे।
ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना।
तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥


जिन्हें वायुका रोग (सत्रिपात. उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूतके वश हो गये हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोहरूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहनेपर कान न देना चाहिये ॥४॥

सो०- अस निज हदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥


अपने हृदयमें ऐसा विचारकर सन्देह छोड़ दो और श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको भजो। हे पार्वती! भ्रमरूपी अन्धकारके नाश करनेके लिये सूर्यको किरणोंके समान मेरे वचनोंको सुनो! ॥ ११५ ॥

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥


सगुण और निर्गुणमें कुछ भी भेद नहीं है-मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तोंके प्रेमवश सगुण हो जाता है ॥१॥

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें।
जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें।
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा।
तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥


जो निर्गुण है, वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।)
जिसका नाम भ्रमरूपी अन्धकारके मिटानेके लिये सूर्य है, उसके लिये मोहका प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है? ॥२॥

राम सच्चिदानंद दिनेसा।
नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरूप भगवाना।
नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥


श्रीरामचन्द्रजी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोहरूपी रात्रिका लवलेश भी नहीं है। वे स्वभावसे ही प्रकाशरूप और [षडैश्वर्ययुक्त] भगवान हैं, वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रात:काल भी नहीं होता। (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रात:काल हो; भगवान तो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं।) ॥३॥

हरष बिषाद ग्यान अग्याना।
जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना।
परमानंद परेस पुराना॥


हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान-ये सब जीवके धर्म हैं। श्रीरामचन्द्रजी तो व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराणपुरुष हैं। इस बातको सारा जगत जानता है ॥४॥


दो०- पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिर्वं नायउ माथ॥११६ ॥

जो [पुराण] पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाशके भण्डार हैं, सब रूपोंमें प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं ऐसा कहकर शिवजीने उनको मस्तक नवाया ॥ ११६॥
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी।
प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी।
झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥

अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु श्रीरामचन्द्रजीपर उसका आरोप करते हैं, जैसे आकाश में बादलोंका पर्दा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढक लिया॥१॥

चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ।
प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ।
उमा राम बिषइक अस मोहा।
नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥

जो मनुष्य आँख में उँगली लगाकर देखता है, उसके लिये तो दो चन्द्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं। हे पार्वती! श्रीरामचन्द्रजीके विषयमें इस प्रकार मोहकी कल्पना करना वैसा ही है जैसा आकाशमें अन्धकार, धूएँ और धूलका सोहना (दीखना)। [आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान श्रीरामचन्द्रजी नित्य निर्मल और निर्लेप हैं] ॥ २॥

बिषय करन सुर जीव समेता।
सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई।
राम अनादि अवधपति सोई॥


विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंके देवता और जीवात्मा-ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात् विषयोंका प्रकाश इन्द्रियोंसे, इन्द्रियोंका इन्द्रियोंके देवताओंसे और इन्द्रियदेवताओंका चेतन जीवात्मासे प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात् जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्यानरेश श्रीरामचन्द्रजी हैं ॥३॥

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू।
मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया।
भास सत्य इव मोह सहाया।

यह जगत प्रकाश्य है और श्रीरामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे मायाके स्वामी और ज्ञान तथा गुणोंके धाम हैं। जिनकी सत्तासे, मोहकी सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य-सी भासित होती है ॥ ४॥

दो०- रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँकाल सोइ भ्रम न सकइ कोउटारि॥११७॥


जैसे सीपमें चाँदीकी और सूर्यकी किरणोंमें पानीकी [बिना हुए भी] प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालोंमें झूठ है, तथापि इस भ्रमको कोई हटा नहीं सकता ॥११७।।

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई।
जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई।
बिनु जागें न दूरि दुख होई॥

इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है: जिस तरह स्वप्रमें कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता ॥१॥

जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई।
गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा।
मति अनुमानि निगम अस गावा॥


हे पार्वती! जिनकी कृपासे इस प्रकारका भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु श्रीरघुनाथजी हैं। जिनका आदि और अन्त किसीने नहीं [जान] पाया। वेदोंने अपनी बुद्धिसे अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है- ॥२॥

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।


वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कानके सुनता है. बिना ही हाथके नाना प्रकारके काम करता है, बिना मुँह (जिह्वा) के ही सारे (छहों) रसोंका आनन्द लेता है और बिना ही वाणीके बहुत योग्य वक्ता है ॥३॥

तन बिनु परस नयन बिनु देखा।
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा।
असि सब भाँति अलौकिक करनी।
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥


वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखोंके देखता है और बिना ही नाकके सब गन्धोंको ग्रहण करता है (सूंघता है)। उस ब्रह्मकी करनी सभी प्रकारसे ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती ॥४॥

दो०- जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥११८॥


जिसका वेद और पण्डित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं. वही दशरथनन्दन, भक्तोंके हितकारी, अयोध्याके स्वामी भगवान श्रीरामचन्द्रजी हैं ॥ ११८ ॥

कासीं मरत जंतु अवलोकी।
जासु नाम बल करउँ बिसोकी।
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी।
रघुबर सब उर अंतरजामी।


[हे पार्वती!] जिनके नामके बलसे काशीमें मरते हुए प्राणीको देखकर मैं उसे [राममन्त्र देकर] शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी जड़-चेतनके स्वामी और सबके हृदयके भीतरकी जाननेवाले हैं॥१॥

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं।
जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं।
भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥


विवश होकर (बिना इच्छाके) भी जिनका नाम लेनेसे मनुष्योंके अनेक जन्मोंमें किये हुए पाप जल जाते हैं। फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसाररूपी [दुस्तर] समुद्रको गायके खुरसे बने हुए गड्ढेके समान (अर्थात् बिना किसी परिश्रमके) पार कर जाते हैं ॥ २ ॥

राम सो परमातमा भवानी।
तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं।
ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥


हे पार्वती ! वही परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी हैं। उनमें भ्रम [देखने में आता] है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यन्त ही अनुचित है। इस प्रकारका सन्देह मनमें लाते ही मनुष्यके ज्ञान, वैराग्य आदि सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं॥३॥

सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना।
मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती।
दारुन असंभावना बीती।


शिवजीके भ्रमनाशक वचनोंको सुनकर पार्वतीजीके सब कुतर्कोंकी रचना मिट गयी। श्रीरघुनाथजीके चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असम्भावना (जिसका होना सम्भव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना) जाती रही ॥४॥

दो०- पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥११९॥


बार-बार स्वामी (शिवजी) के चरणकमलोंको पकड़कर और अपने कमलके समान हाथोंको जोड़कर पार्वतीजी मानो प्रेमरसमें सानकर सुन्दर वचन बोलीं ॥११९॥

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी।
मिटा मोह सरदातप भारी।।
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ।
राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥


आपकी चन्द्रमाकी किरणोंके समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञानरूपी शरद् ऋतु (क्वार) की धूपका भारी ताप मिट गया। हे कृपालु! आपने मेरा सब सन्देह हर लिया, अब श्रीरामचन्द्रजीका यथार्थ स्वरूप मेरी समझमें आ गया॥१॥

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा।
सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी।
जदपि सहज जड़ नारि अयानी॥


हे नाथ! आपकी कृपासे अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणोंके अनुग्रहसे मैं सुखी हो गयी। यद्यपि मैं स्त्री होनेके कारण स्वभावसे ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर- ॥२॥

प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू।
जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहह ॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी।
सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥


हे प्रभो! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिये। [यह सत्य है कि ] श्रीरामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं. सबसे रहित और सबके हदयरूपी नगरीमें निवास करनेवाले हैं ॥३॥

नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू।
मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू।।
उमा बचन सुनि परम बिनीता।
रामकथा पर प्रीति पुनीता॥

फिर हे नाथ ! उन्होंने मनुष्यका शरीर किस कारणसे धारण किया? हे धर्मकी ध्वजा धारण करनेवाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिये। पार्वतीके अत्यन्त नम्र वचन सुनकर और श्रीरामचन्द्रजीकी कथामें उनका विशुद्ध प्रेम देखकर-॥४॥

दो०- हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान।।
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥१२० (क)॥


तब कामदेवके शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपानिधान शिवजी मनमें बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकारसे पार्वतीको बड़ाई करके फिर बोले- ॥ १२० (क)।।


नवाह्नपारायण, पहला विश्राम
मासपारायण, चौथा विश्राम


सो०- सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥१२० (ख)॥

हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानसकी वह मङ्गलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डिने विस्तारसे कहा और पक्षियोंके राजा गरुड़जीने सुना था।। १२० (ख) ॥

सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगे कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ।। १२० (ग)।


वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम श्रीरामचन्द्रजीके अवतारका परम सुन्दर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो ॥ १२० (ग)॥

हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥१२० (घ)॥

श्रीहरिके गुण, नाम, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती ! मैं अपनी बुद्धिके अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो।। १२० (घ)॥

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए।
बिपुल बिसद निगमागम गाए।
हरि अवतार हेतु जेहि होई।
इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥


हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रोंने श्रीहरिके सुन्दर, विस्तृत और निर्मल चरित्रोंका गान किया है। हरिका अवतार जिस कारणसे होता है, वह कारण 'बस यही है' ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता) ॥१॥

राम अतयं बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना।
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना।


हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणीसे श्रीरामचन्द्रजीकी तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार जैसा कुछ कहते हैं, ॥ २॥

तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही।
समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होइ धरम कै हानी।
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥


और जैसा कुछ मेरी समझमें आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-जब धर्मका ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं, ॥३॥

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।
सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।

और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गौ, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भांतिके [दिव्य] शरीर धारण कर सज्जनोंकी पीड़ा हरते हैं ॥४॥

दो०- असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥१२१॥


वे असुरोंको मारकर देवताओंको स्थापित करते हैं, अपने [श्वासरूप] वेदोंकी मर्यादाकी रक्षा करते हैं और जगतमें अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्रीरामचन्द्रजी के अवतारका यह कारण है।। १२१॥

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं।
कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं।
राम जनम के हेतु अनेका।
परम बिचित्र एक तें एका॥

उसी यशको गा-गाकर भक्तजन भवसागरसे तर जाते हैं। कृपासागर भगवान भक्तोंके हितके लिये शरीर धारण करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी के जन्म लेने के अनेक कारण हैं, जो एक-से-एक बढ़कर विचित्र हैं ॥१॥

जनम एक दुइ कहउँ बखानी।
सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ।
जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥


हे सुन्दर बुद्धिवाली भवानी ! मैं उनके दो-एक जन्मोंका विस्तारसे वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। श्रीहरिके जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं ॥२॥

बिप्र श्राप तें दूनउ भाई।
तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन।
जगत बिदित सुरपति मद मोचन।


उन दोनों भाइयोंने ब्राह्मण (सनकादि) के शापसे असुरोंका तामसी शरीर पाया। एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरेका हिरण्याक्ष। ये देवराज इन्द्रके गर्वको छुड़ानेवाले सारे जगतमें प्रसिद्ध हुए।। ३।।

बिजई समर बीर बिख्याता।
धरि बराह बपु एक निपाता।
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा।
जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥


वे युद्ध में विजय पानेवाले विख्यात वीर थे। इनमेंसे एक (हिरण्याक्ष) को भगवानने वराह (सूअर)का शरीर धारण करके मारा; फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंहरूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लादका सुन्दर यश फैलाया॥४॥

दो०- भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥१२२॥


वे ही [दोनों] जाकर देवताओंको जीतनेवाले तथा बड़े योद्धा, रावण और कुम्भकर्ण नामक बड़े बलवान् और महावीर राक्षस हुए. जिन्हें सारा जगत जानता है ॥ १२२॥

मुकुत न भए हते भगवाना।
तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी।
धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥


भगवानके द्वारा मारे जानेपर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिये मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मणके वचन (शाप) का प्रमाण तीन जन्मके लिये था। अतः एक बार उनके कल्याणके लिये भक्तप्रेमी भगवानने फिर अवतार लिया॥१॥

कस्यप अदिति तहाँ पितु माता।
दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा।
चरित पवित्र किए संसारा॥


वहाँ (उस अवतारमें) कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौसल्याके नामसे प्रसिद्ध थे। एक कल्पमें इस प्रकार अवतार लेकर उन्होंने संसारमें पवित्र लीलाएँ की॥२॥

एक कलप सुर देखि दुखारे।
समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा।
दनुज महाबल मरइ न मारा।


एक कल्पमें सब देवताओंको जलन्धर दैत्यसे युद्ध में हार जानेके कारण दुःखी देखकर शिवजीने उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया; पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था।॥ ३॥

परम सती असुराधिप नारी।
तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥


उस दैत्यराजकी स्त्री परम सती (बड़ी ही पतिव्रता) थी। उसीके प्रतापसे त्रिपुरासुर [जैसे अजेय शत्रु] का विनाश करनेवाले शिवजी भी उस दैत्यको नहीं जीत सके॥४॥

दो०- छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह।।१२३॥


प्रभुने छलसे उस स्त्रीका व्रत भङ्ग कर देवताओंका काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया॥ १२३ ॥

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना।
कौतुकनिधि कृपाल भगवाना।
तहाँ जलंधर रावन भयऊ।
रन हति राम परम पद दयऊ।


लीलाओंके भण्डार कृपालु हरिने उस स्त्रीके शापको प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलन्धर उस कल्पमें रावण हुआ, जिसे श्रीरामचन्द्रजीने युद्धमें मारकर परमपद दिया ॥१॥

एक जनम कर कारन एहा।
जेहि लगि राम धरी नरदेहा।।
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी।
सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥


एक जन्मका कारण यह था, जिससे श्रीरामचन्द्रजीने मनुष्यदेह धारण किया। हे भरद्वाज मुनि! सुनो, प्रभुके प्रत्येक अवतारकी कथाका कवियोंने नाना प्रकारसे वर्णन किया है।॥२॥

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