श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
नारद का अभिमान और माया का प्रभाव
नारद श्राप दीन्ह एक बारा।
कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी।
नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥
कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी।
नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥
एक बार नारदजीने शाप दिया, अतः एक कल्पमें उसके लिये अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वतीजी बड़ी चकित हुईं [और बोली कि] नारदजी तो विष्णुभक्त और ज्ञानी हैं ॥३॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा।
का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी।
मुनि मन मोह आचरज भारी॥
का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी।
मुनि मन मोह आचरज भारी॥
मुनिने भगवानको शाप किस कारणसे दिया? लक्ष्मीपति भगवानने उनका क्या अपराध किया था? हे पुरारि (शङ्करजी)! यह कथा मुझसे कहिये। मुनि नारदके मनमें मोह होना बड़े आश्चर्यकी बात है ॥४॥
दो०- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥१२४ (क)॥
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥१२४ (क)॥
तब महादेवजीने हँसकर कहा-न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। श्रीरघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है।। १२४ (क)॥
सो०- कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजुतुलसी तजि मान मद॥१२४ (ख)॥
भव भंजन रघुनाथ भजुतुलसी तजि मान मद॥१२४ (ख)॥
[याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-] हे भरद्वाज! मैं श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी कथा कहता हूँ, तुम आदरसे सुनो। तुलसीदासजी कहते हैं-मान और मदको छोड़कर आवागमनका नाश करनेवाले रघुनाथजीको भजो॥१२४ (ख)॥
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि।
बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा।
देखि देवरिषि मन अति भावा॥
बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा।
देखि देवरिषि मन अति भावा॥
हिमालय पर्वतमें एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुन्दर गङ्गाजी बहती थीं। वह परम पवित्र सुन्दर आश्रम देखनेपर नारदजीके मनको बहुत ही सुहावना लगा ॥१॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा।
भयउ रमापति पद अनुरागा।
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी।
सहज बिमल मन लागि समाधी।
भयउ रमापति पद अनुरागा।
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी।
सहज बिमल मन लागि समाधी।
पर्वत, नदी और वनके [सुन्दर] विभागोंको देखकर नारदजीका लक्ष्मीकान्त भगवानके चरणों में प्रेम हो गया। भगवानका स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शापकी (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापतिने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थानपर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गयी और मनके स्वाभाविक ही निर्मल होनेसे उनकी समाधि लग गयी ॥२॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना।
कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू।
चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू।
चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
नारद मुनिकी [यह तपोमयी] स्थिति देखकर देवराज इन्द्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर उसका आदर-सत्कार किया और कहा कि मेरे [हितके] लिये तुम अपने सहायकोंसहित [नारदकी समाधि भङ्ग करनेको] जाओ। [यह सुनकर] मीनध्वज कामदेव मनमें प्रसन्न होकर चला ॥३॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा।
चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं।
कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं।
कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
इन्द्रके मनमें यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती) का निवास (राज्य) चाहते हैं। जगतमें जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौएकी तरह सबसे डरते हैं ॥ ४॥
दो०- सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥१२५॥
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥१२५॥
जैसे मूर्ख कुत्ता सिंहको देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डीको सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्रको [नारदजी मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते] लाज नहीं आयी। १२५ ॥
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ।
निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा।
कूजहिं कोकिल गुंजहिं भुंगा॥
निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा।
कूजहिं कोकिल गुंजहिं भुंगा॥
जब कामदेव उस आश्रममें गया, तब उसने अपनी मायासे वहाँ वसन्त-ऋतुको उत्पन्न किया। तरह-तरहके वृक्षोंपर रंग-बिरंगे फूल खिल गये, उनपर कोयले कूकने लगी और भौंरे गुंजार करने लगे॥१॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी।
काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुर नारि नबीना।
सकल असमसर कला प्रबीना॥
काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुर नारि नबीना।
सकल असमसर कला प्रबीना॥
कामाग्निको भड़कानेवाली तीन प्रकारकी (शीतल, मन्द और सुगन्ध) सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती देवाङ्गनाएँ, जो सब-की-सब कामकलामें निपुण थीं, ॥२॥
करहिं गान बहु तान तरंगा।
बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा।
देखि सहाय मदन हरषाना।
कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा।
देखि सहाय मदन हरषाना।
कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
वे बहुत प्रकारकी तानों की तरङ्गके साथ गाने लगी और हाथमें गेंद लेकर नाना प्रकारके खेल खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकोंको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना प्रकारके मायाजाल किये ॥३॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी।
निज भयँ डरेउ मनोभव पापी।
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू।
बड़ रखवार रमापति जासू॥
निज भयँ डरेउ मनोभव पापी।
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू।
बड़ रखवार रमापति जासू॥
परन्तु कामदेवकी कोई भी कला मुनिपर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने ही [नाशके] भयसे डर गया। लक्ष्मीपति भगवान जिसके बड़े रक्षक हों, भला, उसकी सीमा (मर्यादा)को कोई दबा सकता है? ||४||
दो०- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥
तब अपने सहायकोंसमेत कामदेवने बहुत डरकर और अपने मनमें हार मानकर बहुत ही आर्त (दीन) वचन कहते हुए मुनिके चरणोंको जा पकड़ा।।१२६ ॥
भयउ न नारद मन कछु रोषा।
कहि प्रिय बचन काम परितोषा।
नाइ चरन सिरु आयसु पाई।
गयउ मदन तब सहित सहाई॥
कहि प्रिय बचन काम परितोषा।
नाइ चरन सिरु आयसु पाई।
गयउ मदन तब सहित सहाई॥
नारदजीके मनमें कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेवका समाधान किया। तब मुनिके चरणोंमें सिर नवाकर और उनकी आज्ञा पाकर कामदेव अपने सहायकोंसहित लौट गया॥१॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी।
सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब के मन अचरजु आवा।
मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब के मन अचरजु आवा।
मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
देवराज इन्द्रकी सभामें जाकर उसने मुनिकी सुशीलता और अपनी करतूत सब कही, जिसे सुनकर सबके मनमें आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुनिकी बड़ाई करके श्रीहरिको सिर नवाया ॥२॥
तब नारद गवने सिव पाहीं।
जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरित संकरहि सुनाए।
अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरित संकरहि सुनाए।
अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
तब नारदजी शिवजीके पास गये। उनके मनमें इस बातका अहंकार हो गया कि हमने कामदेवको जीत लिया। उन्होंने कामदेवके चरित्र शिवजीको सुनाये और महादेवजीने उन (नारदजी) को अत्यन्त प्रिय जानकर [इस प्रकार] शिक्षा दी-॥३॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोही।
जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ।
चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥
जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ।
चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥
हे मुनि ! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनायी है, उस तरह भगवान श्रीहरिको कभी मत सुनाना। चर्चा भी चले तब भी इसको छिपा जाना ॥ ४॥
दो०- संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥१२७॥
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥१२७॥
यद्यपि शिवजीने यह हितकी शिक्षा दी, पर नारदजीको वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज! अब कौतुक (तमाशा) सुनो। हरिकी इच्छा बड़ी बलवान् है।। १२७॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई।
करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए।
तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए।
तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
श्रीरामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। श्रीशिवजीके वचन नारदजीके मनको अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँसे ब्रह्मलोकको चल दिये ॥१॥
एक बार करतल बर बीना।
गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा।
जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा।
जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
एक बार गानविद्या में निपुण मुनिनाथ नारदजी हाथमें सुन्दर वीणा लिये, हरिगुण गाते हुए क्षीरसागरको गये, जहाँ वेदोंके मस्तकस्वरूप (मूर्तिमान् वेदान्ततत्त्व) लक्ष्मीनिवास भगवान नारायण रहते हैं ॥२॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता।
बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया।
बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया।
बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया।
बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया।
रमानिवास भगवान उठकर बड़े आनन्दसे उनसे मिले और ऋषि (नारदजी) के साथ आसनपर बैठ गये। चराचरके स्वामी भगवान हँसकर बोले-हे मुनि! आज आपने बहुत दिनोंपर दया की॥३॥
काम चरित नारद सब भाषे।
जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे।
अति प्रचंड रघुपति कै माया।
जेहि न मोह अस को जग जाया॥
जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे।
अति प्रचंड रघुपति कै माया।
जेहि न मोह अस को जग जाया॥
यद्यपि श्रीशिवजीने उन्हें पहलेसे ही बरज रखा था, तो भी नारदजीने कामदेवका सारा चरित्र भगवानको कह सुनाया। श्रीरघुनाथजीकी माया बड़ी ही प्रबल है। जगतमें ऐसा कौन जन्मा है जिसे वह मोहित न कर दे॥४॥
दो०- रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥
भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले-हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं [ फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है?] | १२८॥
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें।
ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा।
तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा।
तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
हे मुनि ! सुनिये, मोह तो उसके मनमें होता है जिसके हृदयमें ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रतमें तत्पर और बड़े धीरबुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है? ॥ १ ॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना।
कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी।
उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी।
उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
नारदजीने अभिमानके साथ कहा--भगवन्! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवानने मनमें विचारकर देखा कि इनके मनमें गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है॥२॥
बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी।
पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई।
अवसि उपाय करबि मैं सोई॥
पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई।
अवसि उपाय करबि मैं सोई॥
मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, क्योंकि सेवकोंका हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा जिससे मुनिका कल्याण और मेरा खेल हो॥३॥
तब नारद हरि पद सिर नाई।
चले हृदयँ अहमिति अधिकाई।
श्रीपति निज माया तब प्रेरी।
सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
चले हृदयँ अहमिति अधिकाई।
श्रीपति निज माया तब प्रेरी।
सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
तब नारदजी भगवानके चरणोंमें सिर नवाकर चले। उनके हृदयमें अभिमान और भी बढ़ गया। तब लक्ष्मीपति भगवानने अपनी मायाको प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो॥४॥
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