श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
शिव-पार्वती संवाद
निज कर डासि नागरिपु छाला।
बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा।
भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा।
भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
अपने हाथसे बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभावसे ही (बिना किसी खास प्रयोजनके) वहाँ बैठ गये। कुन्दके पुष्प, चन्द्रमा और शंखके समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियोंके-से (वल्कल) वस्त्र धारण किये हुए थे॥३॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना।
नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी।
आननु सरद चंद छबि हारी।।
नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी।
आननु सरद चंद छबि हारी।।
उनके चरण नये (पूर्णरूपसे खिले हुए) लाल कमलके समान थे, नखोंकी ज्योति भक्तोंके हृदयका अन्धकार हरनेवाली थी। साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुरके शत्रु शिवजीका मुख शरद् (पूर्णिमा) के चन्द्रमाकी शोभाको भी हरनेवाला (फीकी करनेवाला) था॥४॥
दो०- जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥१०६॥
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥१०६॥
उनके सिरपर जटाओंका मुकुट और गङ्गाजी [शोभायमान] थीं। कमलके समान बड़े-बड़े नेत्र थे। उनका नील कण्ठ था और वे सुन्दरताके भण्डार थे। उनके मस्तकपर द्वितीयाका चन्द्रमा शोभित था। १०६ ॥
बैठे सोह कामरिपु कैसें।
धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी।
गईं संभु पहिं मातु भवानी॥
धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी।
गईं संभु पहिं मातु भवानी॥
कामदेवके शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शान्तरस ही शरीर धारण किये बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वतीजी उनके पास गयीं ॥१॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा।
बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठी सिव समीप हरषाई।
पूरब जन्म कथा चित आई।
बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठी सिव समीप हरषाई।
पूरब जन्म कथा चित आई।
अपनी प्यारी पत्नी जानकर शिवजीने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बायीं ओर बैठनेके लिये आसन दिया। पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजीके पास बैठ गयीं। उन्हें पिछले जन्मकी कथा स्मरण हो आयी॥२॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी।
बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी।
सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी।
सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
स्वामीके हृदयमें [अपने ऊपर पहलेकी अपेक्षा अधिक प्रेम समझकर पार्वतीजी हँसकर प्रिय वचन बोलीं। [याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि ] जो कथा सब लोगोंका हित करनेवाली है, उसे ही पार्वतीजी पूछना चाहती हैं ॥३॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी।
त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा।
सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा।
सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
[पार्वतीजीने कहा-] हे संसारके स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करनेवाले! आपकी महिमा तीनों लोकोंमें विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरणकमलोंकी सेवा करते हैं।॥ ४॥
दो०- प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥
हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणोंके निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्यके भण्डार हैं। आपका नाम शरणागतोंके लिये कल्पवृक्ष है। १०७॥
जो मो पर प्रसन्न सुखरासी।
जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना।
कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना।
कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
हे सुखकी राशि! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी [या अपनी सच्ची दासी] जानते हैं, तो हे प्रभो! आप श्रीरघुनाथजीको नाना प्रकारकी कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिये॥१॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई।
सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी।
हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी।
हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
जिसका घर कल्पवृक्षके नीचे हो, वह भला दरिद्रतासे उत्पन्न दुःखको क्यों सहेगा? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदयमें ऐसा विचारकर मेरी बुद्धिके भारी भ्रमको दूर कीजिये॥२॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी।
कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना।
सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना।
सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
हे प्रभो! जो परमार्थतत्त्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे श्रीरामचन्द्रजीको अनादि ब्रह्म कहते हैं; और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी श्रीरघुनाथजीका गुण गाते हैं ॥३॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।
सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई।
की अज अगुन अलखगति कोई॥
सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई।
की अज अगुन अलखगति कोई॥
और हे कामदेवके शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं। ये राम वही अयोध्याके राजाके पुत्र हैं? या अजन्मा, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं ? ॥४॥
दो०- जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥
यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे? [और यदि ब्रह्म हैं तो] स्त्रीके विरहमें उनकी मति बावली कैसे हो गयी? इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यन्त चकरा रही है ॥१०८।।
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ।
कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू।
जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू।
जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और है, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिये। मुझे नादान समझकर मनमें क्रोध न लाइये। जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिये॥१॥
मैं बन दीखि राम प्रभुताई।
अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई।
तदपि मलिन मन बोधु न आवा।
सो फलु भली भाँति हम पावा।
अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई।
तदपि मलिन मन बोधु न आवा।
सो फलु भली भाँति हम पावा।
मैंने [पिछले जन्म में] वनमें श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुता देखी थी, परन्तु अत्यन्त भयभीत होनेके कारण मैंने वह बात आपको सुनायी नहीं। तो भी मेरे मलिन मनको बोध न हुआ। उसका फल भी मैंने अच्छी तरह पा लिया ॥२॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरें।
करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें।
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा।
नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें।
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा।
नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं।
रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा।
भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा।
भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
मुझे अब पहले-जैसा मोह नहीं है, अब तो मेरे मनमें रामकथा सुननेकी रुचि है। हे शेषनागको अलंकाररूपमें धारण करनेवाले देवताओंके नाथ! आप श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी पवित्र कथा कहिये॥ ४॥
दो०- बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥
मैं पृथ्वीपर सिर टेककर आपके चरणोंकी वन्दना करती हूँ और हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। आप वेदोंके सिद्धान्त को निचोड़कर श्रीरघुनाथजीका निर्मल यश वर्णन कीजिये॥१०९॥
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी।
दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं।
आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं।
आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
यद्यपि स्त्री होनेके कारण मैं उसे सुननेकी अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्मसे आपकी दासी हूँ। संत लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते॥१॥
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