आचार्य श्रीराम शर्मा >> उन्नति के तीन गुण-चार चरण उन्नति के तीन गुण-चार चरणश्रीराम शर्मा आचार्य
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समस्त कठिनाइयों का एक ही उद्गम है – मानवीय दुर्बुद्धि। जिस उपाय से दुर्बुद्धि को हटाकर सदबुद्धि स्थापित की जा सके, वही मानव कल्याण का, विश्वशांति का मार्ग हो सकता है।
स्वतंत्रता संग्राममें जूझते हुए राणाप्रताप वन पर्वतों में अपने छोटे-परिवार सहित मारे-मारे फिर रहे थे। एक दिन ऐसा अवसर आया कि खाने के लिए कुछ भी नहीं। अनाज को पीसकर उनकी धर्मपत्नी ने जो रोटी बनाई थी उसे भी वनबिलाव उठा ले गया। छोटी बच्ची भूख से व्याकुल होकर रोने लगी।
राणा प्रताप का साहस टूटने लगा। वे इस प्रकार बच्चों को भूख से तड़प कर मरते देखकर विचलित होने लगे। मन में आया शत्रु से संधि कर ली जाए और आराम की जिंदगी बितायी जाए।
रानी को अपने पतिदेव की चिंता समझने में देर न लगी। उसने प्रोत्साहन भरे शब्दों में कहा, ''नाथ! कर्तव्यनिष्ठा किसी भी मूल्य पर गँवाई नहीं जा सकती, सारे परिवार के भूखों या किसी भी प्रकार मरने के मूल्य पर भी नहीं।''
प्रताप का उतरा हुआ चेहरा फिर चमकने लगा। उसने कहा, ''प्रिये। तुम ठीक ही कहती हो। सुविधा का जीवन तुच्छ जीव भी बिता सकते हैं, पर कर्त्तव्य की कसोटी पर तो मनुष्य ही कसे जाते हैं। परीक्षा की इस घड़ी में हमें खोटा नहीं खरा ही सिद्ध होना चाहिए।''
राणा वन में से दूसरा आहार ढूँढकर लाए और उनने दूने उत्साह से स्वतंत्रता संग्राम जारी रखने की गतिविधियाँ आरभ कर दीं।
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