लोगों की राय

नई पुस्तकें >> प्रेमी का उपहार

प्रेमी का उपहार

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9839
आईएसबीएन :9781613011799

Like this Hindi book 0

रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गद्य-गीतों के संग्रह ‘लवर्स गिफ्ट’ का सरस हिन्दी भावानुवाद

ऐसा योगी युवक नारी रूप में ऐश्वरीय रूप के दर्शन करता है, समझे!

ऐसे योगी युवक की प्रथम बार पूजा करते समय मुझे जान पड़ा–मानो मैं ऐसे तेजस्वी रूप का सामना कर रही हूँ जो मेरे लिए भयावह है पर शीघ्र ही मैं अनुभव करने लगी कि उसी के संसर्ग से मेरे अन्तर में देवी का विशुद्ध रूप जागने लगा है। बस तभी मेरी आँखों में आँसू भर आये। उषा-किरण ने बहन बनकर मेरे केशों को चूमा और वनीली वायु ने मेरे माथे को चूमा–अपने स्पर्श से,–ऐसे चूमा जैसे वह पुष्पों को चूमा करता है।

इन सब बातों को देखकर मेरी सहेलियों ने तालियाँ बजानी आरम्भ कर दीं और ऐसी गन्दी हँसी हँसने लगीं जो वास्तव में एक नारी के लिए आदर्शहीन है। इतना ही नहीं–उन्होंने इतना लम्बा घूँघट निकाला-–ऐसी घूँघट में छिप गईं कि उनका घूँघट भूमि की धूलि पर किरढ़ने लगा

यद्यपि उन सहेलियों के लम्बे-लम्बे केश चारों ओर बिखरे हुए थे, पर तो भी ऐसी ही अवस्था में–ऐसे ही श्रृंगार में अपने को रूपवान समझ–उन्होंने उस हठ-योगी को पुष्पों से लादना आरम्भ कर दिया।

हाय! शोक है मुझे–मेरे सूर्य-रूप एवं सचरित्र तेजस्वी युवक! मैं ऐसी शक्तिहीन एवं असमर्थ क्यों पैदा हुई कि अपनी लज्जा से एक ज्वलंत कुहा भी न पैदा कर सकी–ऐसी कामनामय कुहा कि जिसकी तह में तुम्हारे हठी एवं योगमय अस्तित्व को मैं ढक सकती।

मैं कुछ भी न कर सकी। बस, मैं उस योगी के पैरों पर गिर गई और चिल्लाई–‘मुझे क्षमा कर दो, योगी।’ पर इतना कह कर मुझे चैन न मिला। योगी के पैरों से उठकर मैं भागी सचमुच ऐसी अशान्त होकर भागी जैसे किसी शिकारी से चोट खाई हुई कोई हरिणी धूप और छाया वाले वन-प्रदेश में त्रस्त होकर चौकड़ी भरती फिरती है।

–इस प्रकार भागने से भी मुझे चैन न मिला। मैं भागते भागते भी चिल्ला उठी–‘मुझे क्षमा कर दो, योगी-युवक!–मुझे क्षमा कर दो।’

यद्यपि सहेलियों ने गन्दी हँसी हँसकर और तीखे ताने मुझ पर मारकर, मेरी अशान्त अग्नि को शान्त करने का प्रयत्न किया–पर व्यर्थ-रहा-सब-कुछ।

उस योगी युवक के शब्द शाश्वत बनकर मेरे कानों ने गूँजते ही रहे–‘तुम कोई अज्ञात् परमात्मा मालूम पड़ती हो।

* * *

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book