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प्रेमी का उपहार

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9839
आईएसबीएन :9781613011799

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रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गद्य-गीतों के संग्रह ‘लवर्स गिफ्ट’ का सरस हिन्दी भावानुवाद

अपनी गहनता में स्मृति के खो जाने को विस्मृति कहते हैं

क्या तुम केवल एक चित्रस्वरुप हो?–मैं तो तुम्हें आकाश के तारे और पृथ्वी की धूलि के समान सत्य समझता था। संसार की प्रत्येक वस्तु में आकाश और पृथ्वी का अस्तित्व स्थित है।

किन्तु आश्चर्य! तुम तो पूर्णतया एकाकी और चित्र-सम टँगी-सी दीख पड़ती हो।

दिवस की उष्ण उच्छ्वास में तुम मेरे साथ टहल रही थीं, तब, क्या तुम्हें याद हैं–तुम्हारे कोमल अंग-प्रत्यंग जीवन का संगीत अलाप रहे थे? मेरा समस्त संसार जितना कुछ भी कह सकता है वह सब तुम्हारे मधुर कंठ में निहित है। तुम्हें नहीं मालूम–मेरा संसार तो तुम्हारे रूप द्वारा नित्य ही मेरे हृदय को छू लेता है। तुम न जाने कैसी हो!–एकाएक तमाल वृक्ष की छाया में रुक गईं और मुझे बिना साथी ही आगे बढ़ना पड़ा।

जीवन, एक छोटे बालक के समान, मृत्यु के आगमन नाद पर हँसने लगता है। वही जीवन जो एक छोटे बालक के समान निडर है मुझे आगे का मार्ग बता रहा है और मैं निरन्तर अदृश्य का अनुगामी बन आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील हूँ।

जब मैं तुम्हें देखता हूँ तो बड़ी अनोखी-सी मालूम पड़ती हो। तुम वहीं खड़ी रह गईं–वहीं खड़ी हो–उस धूलि और तारों के झुंड के पीछे–वहीं जहाँ तुम चित्र के समान टँगी खड़ी थी।

नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है, मुझे विश्वास है। यदि जीवन का वेग सहमकर तुम्हारे शरीर में रुक गया तो जान लो संसार की समस्त नदियाँ भी भयभीत होकर अपने जल की गति को बंद कर देंगी।

तुम्हारी जीवन-गति के बंद होने का अर्थ है–प्राची की उषा के सातों रंगों का पृथ्वी पर आ गिरना।

यदि तुम्हारे इन काले केशों की संध्या-सी रमक निशा की नीरव निराशा में खो गई तो जान लो–ग्रीष्म के वनों की साया अपने स्वप्नों को साथ लेकर मर जावेगी।

क्या यह कभी भी सत्य हो सकता है कि मैं तुम्हें भूल गया हूँ हम अपने चलने में इतनी जल्दी करते हैं कि मार्ग के तट पर लगी बेलों के पुष्पों को निश्चिय से होकर भूलते चलते हैं। किन्तु पुष्प बेचारे कितने अच्छे हैं। वे तिस पर भी अपनी सुंगधि से हमारी विस्मृति को जागृत कर देते हैं और हमारी विस्मृतावस्था में ही अपने संगीत-तार को झनभना देते हैं।

मेरे संसार से निकलकर तुम मेरे जीवन की गहनता आधारशिला पर जाकर बैठ गई हो और इस प्रकार तुमने यह सिद्ध कर दिया कि–अपनी ही गहनता में स्मृति के खो जाने को विस्मृति कहते हैं।

अब तो तुमने जान लिया होगा कि मेरे गीत और तुम, दोनों ही एक हो। तुम मेरे समीप उस समय आई थीं जब उषा की पहली किरण पृथ्वी पर उतरी थी।

मैंने उस समय तुम्हें खो दिया था जब संध्या ने गोधूलि को स्वर्ण समझकर फेंक दिया था।

उसी समय से–जब से तुम्हें खो चुका हूँ तब से आज तक अपने ही निशामय जीवन की काली अंधियारी में तुम्हें प्राप्त करने के लिए निरन्तर खोज कर रहा हूँ।

नहीं अब मैं जान गया हूँ कि चित्र के समान तुम निर्जीव नहीं! तुम तो वास्तव में सजीव हो।

* * *

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