नई पुस्तकें >> प्रेमी का उपहार प्रेमी का उपहाररबीन्द्रनाथ टैगोर
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रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गद्य-गीतों के संग्रह ‘लवर्स गिफ्ट’ का सरस हिन्दी भावानुवाद
तुम कितनी ही दूर खड़ी हो जाओ पर मैं तुम्हें देख सकता हूँ
तुम मृत्यु के द्वार से निकलकर आगे चली गईं और पीछे भी कुछ छोड़ चलीं।–और वह है शाश्वत् की अनन्त वेदना जिसकी सिसकियों से मेरा जीवन त्रस्त है। तुम तो चली गई पर सूर्यास्त के धूमिल रंगों की चित्रछाया तुमने इस पृथ्वी पर छोड़ दी और उन्हीं धूमिल रंगों से तुमने मेरे विचारों के क्षितिज को रंग दिया। तुम्हें तो जाना था इसलिए चली गईं परन्तु पृथ्वी के उस पार प्रेम के स्वर्ग के लिए आँसुओं का एक मार्ग और बना गईं। तुम्हारी भुजाओं का बंधन एक वैवाहिक बंधन है जिसमें जीवन और मृत्यु–दोनों ही आकर मिलते हैं।
तुम एक प्रदीप्त दीपक हाथ में लिए अपने घर के छज्जे पर खड़ी हो। तुम वहाँ दूर खड़ी हो, पर मेरा विचार है, मैं तुम्हें देख सकता हूँ क्योंकि जहाँ तुम खड़ी हो, वहीं पर आदि और अन्त आकर मिलते हैं।
जिन द्वारों को तुमने अपने हाथों से खोल दिया है उन्हीं के बीच से मेरा जीवन संसार बह रहा है।
क्यों!-अपने द्वार पर तुम मेरे अधरों के लिए मृत्यु का प्याला लिए खड़ी हो! वही प्याला ना! जिसमें अपनी जीवन मृत्यु से तुमने अमृत भर दिया है।
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