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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले

मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :61
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9833
आईएसबीएन :9781613012833

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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।

साधनों का महत्व तो अवश्य है, पर इतना नहीं कि उन्हें व्यक्तित्व के स्तर से भी ऊँचा माना जा सके। गरीब देशों के लोग सर्वथा निठल्ले निकम्मे ही रहते हों, ऐसी बात भी नहीं है। इन्हें बहुत कुछ पाने की इच्छा उत्सुकता न रहती हो, सो बात भी नहीं है। शरीर संरचना भी उनकी एक जैसी ही होती है। कई तो उनमें से शिक्षित और समर्थ भी रहते हैं, इतने पर भी गई-गुजरी परिस्थितियाँ उनका पीछा नहीं छोड़ती। अभावों, कष्टों, विद्रोहों और संकटों का माहौल कहीं न कहीं से आ ही धमकता है। व्यक्तित्व को गरिमा संपन्न बना सकने में अड़ा रहने वाला अवरोध ही इसका प्रधान कारण होता है, जिसके कारण या तो वे अभीष्ट अर्जन-उत्पादन कर ही नहीं पाते, या फिर से उसे स्वभावगत अस्त-व्यस्तता के कारण ऐसे ही गँवा-उड़ा देते हैं।

इसके ठीक विपरीत यह भी पाया गया है कि साधु, सज्जन, सद्गुणी, सेवा-भावी लोग, नगण्य साधनों से सदाशयता की रीति नीति अपनाए हुए, हँसता-हँसाता और खिलता-खिलाता जीवन जी लेते हैं। उन्हीं परिस्थितियों में न केवल स्वयं को, वरन् अन्य पिछड़े हुओं को भी ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में समर्थ होते हैं। ऐसे ही आदर्शवादी, शालीनता संपन्नों का अपना पुरातन इतिहास जीवन्त स्थिति में रहा है। वह साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों का समुदाय, न केवल अपने देशवासियों का स्तर असाधारण रूप से ऊँचा उठाने में समर्थ हुआ था, वरन् उन्हीं मुट्ठी भर लोगों ने देश- देशांतरों में प्रगतिशीलता का, सर्वतोमुखी सुसंपन्नता का, सुसंस्कारिता का वातावरण बनाकर रख दिया था। गरीबी किसी के मार्ग में बाधक नहीं होती। मात्र कुपात्रता ही उसकी आड़ में छिपकर सर्वत्र गंदगी फैलाती और पतन-पराभव का माहौल बनाती रहती है।

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