आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
उदारता अपनाई ही जाए
शरीर कितना ही सुन्दर-सुसज्जित क्यों न हो, उसकी प्रतिष्ठा-उपयोगिता तभी है, जब उसमें जीव चेतना विद्यमान हो। निष्प्राण हो जाने की स्थिति में तो, तथाकथित प्रेम प्रकट करने वाले भी उसे हटा देने का जुगाड़ बनाने में लग जाते हैं। सज्जनता की शोभा, उपयोगिता, आवश्यकता कितनी ही क्यों न हो, पर वह श्रेष्ठ स्तर की तभी मानी जाएगी, जब उसके साथ शालीनता की प्राणचेतना का सुनिश्चित समावेश हो।
संपत्ति से सुविधा साधन भर बढ़ या मिल सकते हैं किंतु यदि उनका सदुपयोग न बन पड़े, तो वह दुधारी तलवार बन जाती है। वह रक्षा भी कर सकती है और अपनी तथा दूसरों की हत्या करने के काम भी आ सकती है। पिछले दिनों भूल यही होती रही है कि एक मात्र संपत्ति के ही गुण गाए जाते रहे। यहाँ तक समझा जाता रहा है कि उसके सहारे व्यक्ति की प्रतिभा-प्रतिष्ठा भी बढ़ सकती है। यह मान्यता ही आदि से अंत तक भ्रांतियों से भरी हुई है। यदि ऐसा ही रहा होता, तो धन संपन्नों के द्वारा लोकमंगल के श्रेष्ठ प्रयास बन पड़े होते और पिछड़ेपन का नाम निशान भी शेष कहीं न रहा होता। यदि सर्वसाधारण को पिछड़ेपन से, अभावग्रस्तता से उबारने में संचित संपदाओं को खर्च किया जा सका होता, तो संसार का नक्शा ही बदल गया होता।
संसार में इतनी धन संपदा है कि उसे मिल-बाँट कर खाने पर सभी लोग सुख शांति से रह सकें और संतोषपूर्वक सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करते रहें। विलास, संचय और अहंकार के प्रदर्शन में उसका उपयोग होने लगे, तो समझना चाहिए कि वह निरर्थक ही नहीं गई, वरन् उसने अनर्थ विनिर्मित करने के लिए अवांछनीय वातावरण भी बनाकर रख दिया।
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