धर्म एवं दर्शन >> सुग्रीव और विभीषण सुग्रीव और विभीषणरामकिंकर जी महाराज
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सुग्रीव और विभीषण के चरित्रों का तात्विक विवेचन
रावण के चरणों का प्रहार लगते ही विभीषण को प्रभु के चरणों की याद आ जाती है। संसार का प्रहार होने पर ईश्वर की याद आ जाना ही, ईश्वर की सबसे बड़ी अनुकम्पा है और यह साधन वृत्ति का लक्षण भी है। सांसारिक व्यक्ति प्रहार से बदला लेने के लिए व्यग्र हो जाता है और जो साधक है, वह प्रहार के बाद उसमें भगवान् का क्या सन्देश है? भगवान् क्या चाहते हैं? यह देखता है। विभीषण साधक हैं, उसके जीवन का यही सत्य है कि वह रावण के प्रहार में भगवान् का सन्देश पाता है और तब वह रावण की सभा में घोषणापूर्वक यह कहते हैं –
रामु सत्य संकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाऊँ देहु जनि खोरि।। 5/41
कैसा विश्वास भगवान् में है? यह विभीषण और सुग्रीव में अन्तर है। सुग्रीव को भगवान् मिल गये, तब भी उनको विश्वास दिलाना पड़ा और विभीषण की आज तक भगवान् से भेंट नहीं हो पायी फिर भी इतना विश्वास है कि हमारे प्रभु तो साक्षात् ईश्वर हैं, मैं उनकी शरण में जा रहा हूँ फिर वे प्रभु की ओर चलते हैं। उनमें साधना का क्रम है – पहले वे देहाभिमान से मुक्त हुए, जिसे वे नहीं छोड़ पाते थे, उसका उन्होंने त्याग किया और देहाभिमान के समुद्र को पार करके पहुँच गये, पर सबसे बढ़िया बात क्या है? जब सुग्रीव को यह समाचार मिला तो भगवान् से कहा कि –
आवा मिलन दसानन भाई। 5/42/4
स्वयं पर तो वे कृपा चाहते हैं, पर जब दूसरे को देखते हैं तो बड़ी कठोर दृष्टि हो जाती है। अधिकांश लोगों को स्वभाव यही है कि अपने लिए दया और दूसरों के लिए न्याय! वे कहते हैं कि प्रभु! आपने ध्यान दिया कि रावण का भाई आया हुआ है। हमारे प्रभु यदि शीलवान् न होते तो कह देते कि बालि का भाई आ सकता है तो रावण का भाई भी आ सकता है, लेकिन नहीं बोले। प्रभु ने पूछा कि तुम क्या चाहते हो? सुग्रीव ने कहा कि महाराज! –
जानि न जाय निसाचर माया।
कामरूप केहिं कारन आया।।
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोंहि अस भावा।। 5/42/6-7
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