धर्म एवं दर्शन >> सुग्रीव और विभीषण सुग्रीव और विभीषणरामकिंकर जी महाराज
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सुग्रीव और विभीषण के चरित्रों का तात्विक विवेचन
भगवान् मन ही मन बहुत हँसे कि सुग्रीव मिथ्या ज्ञान-वैराग्य की बातें कर रहा है। जब भगवान् ने कहा कि जाकर बालि को ललकारो! तब सुग्रीव ने पूछा कि बालि को कौन मारेगा? भगवान् ने कहा कि मैं मारूँगा। पूछा कि बालि से लड़ेगा कौन? भगवान् बोले कि लड़ोगे तुम! शायद तुम्हारे मन में आये कि मैं ही बालि को हरा देता। पहले लड़कर तुम देख लो और जब असमर्थता की अनुभूति होगी तब मैं मारूँगा। जब सुग्रीव गया तो क्या हुआ? पहले तो सुग्रीव कह रहा था कि बालि मेरा हितैषी है जिसकी कृपा से आपसे मिलन हुआ। युद्ध में जाने पर बालि का पहला मुक्का लगते ही वे तुरन्त भागे और प्रभु के पास आये। लक्ष्मणजी ने कहा कि प्रभु! व्यक्ति का स्वभाव नहीं छूटता, देख लीजिए –
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा।
मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा।। 4/7/3
आपने मित्र बना लिया, फिर भी इनका भागना छूटा नहीं। प्रभु ने हँसकर कहा कि लक्ष्मण! तुम देखते नहीं हो? भागना तो नहीं छूटा, पर भागकर मेरे पास ही तो आया है और कहीं तो नहीं गया। तुम भागने को क्यों देख रहे हो? भागकर कहाँ गया? इस पर तुम्हारी अन्तर्दृष्टि जानी चाहिए। सुग्रीव को अपनी असमर्थता का ज्ञान हो गया। हनुमान् जी सन्त हैं, उनको भगवान् की कृपा के रहस्य का, भगवान् के उदार स्वभाव का पता है और सुग्रीव में असमर्थता है, अभाव है। भगवान् प्यार से, क्रोध से, सुग्रीव को अपना बनाये रखते हैं, उन्हें अपना मित्र बनाते हैं।
दूसरी ओर प्रभु में विभीषण से भी मिलने की इच्छा है। वे समुद्र के किनारे रुके हुए हैं, साधक से कहते हैं कि भई! तुम तो चल सकते हो, बाल्यावस्था से तुमने साधन किया है, मैं इतनी दूर से चलकर आया, पर समुद्र को पार करके तो अब तुम्हीं को आना पड़ेगा। आध्यात्मिक अर्थों में इसका अभिप्राय है कि समुद्र देहाभिमान है और विभीषण जब अपनी देह को मानेंगे तो इसका परिणाम होगा कि उनको ऐसा लगेगा कि रावण मेरा भाई है। रावण को वह छोड़ नहीं पायेगा। भगवान् का अभिप्राय है कि जब तुमने साधन किया है तो कम से कम उस सम्बन्ध का मान छोड़कर तुम मेरे पास आओ। तब सचमुच उन पर रावण का प्रहार होता है और उस प्रहार में भी वे प्रभु का सन्देश सुनते हैं।
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