धर्म एवं दर्शन >> सुग्रीव और विभीषण सुग्रीव और विभीषणरामकिंकर जी महाराज
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सुग्रीव और विभीषण के चरित्रों का तात्विक विवेचन
मैं आज्ञा का पालन करूँगा। तब भगवान् ने कहा कि मेरी आज्ञा यही है कि मैं जो कुछ सेवा करूँ, उसे चुपचाप स्वीकार कर लो, उसमें नहीं मत करना। ऐसे विलक्षण स्वामी हैं कि सेवक को सेवा करने की आज्ञा दे दी। जब भगवान् राम को स्नान करने के लिए कहा गया तो उन्होंने आसन पर भरत को बैठा दिया, स्वयं पीछे खड़े होकर उनकी जटाओं को सुलझाने लगे तब श्रीभरत ने पूछा कि क्यों तुमको कैसा लगा? श्रीभरत ने कहा कि प्रभु! आपके याद होगा कि चित्रकूट में जो आपके विषय में मैंने कहा था, आज वह प्रत्यक्ष हो गया। भरत से सेवा लेने के स्थान पर वही को सेवा करते हैं, श्रीभरतजी कहते हैं –
को साहिब सेवकहिं नेवाजी।
आपु समाज साज सब साजी।।
निज करतूति न समुझिअ सपनें।
सेवक सकुच सोचु उर अपनें।। 2/298/5-6
यह प्रभु का स्वामित्व है। हनुमान् जी का रहस्य क्या था? बोले कि यदि सेवा करने वाले सेवक की जरूरत होती तब तो मैं सुग्रीव को बिल्कुल न बताता, लेकिन आपको तो सेवा लेने वाला सेवक चाहिए, तो सुग्रीव बिल्कुल ऐसे ही हैं। आप उनकी जितनी सेवा करना चाहें उतनी कर लें, कोई आपत्ति का बात नहीं है। आगे और कहा कि आप चलकर उनके साथ मैत्री कीजिए –
तेहिं सन नाथ मयत्री कीजे।
दीन जानि तेहि अभय करीजे।। 4/3/3
सुग्रीव दास हैं तो यह कहना चाहिए कि उसको सेवा में ले लीजिए। वे तो कह रहे हैं कि उनको मित्र बना लीजिए। सेवक को सेवक बनाने वाले तो बहुत हैं, पर सेवक को मित्र बनाने वाले तो आप जैसे उदार ही हैं। यह तो आपकी ही विशेषता हो सकती है कि सेवक को अपनी बराबरी का बना दें। साथ-साथ हनुमान् जी ने यह भी कहा कि जब मैं सेवक को मित्र बनाने के लिए कह रहा हूँ तो इसमें मेरा भी स्वार्थ है। सुग्रीव हैं सेवक, जब वह मित्र बन जायेगा तो सेवक का पद खाली हो जायेगा तब वह पद मुझे दे दीजिएगा तो मेरा भी काम हो जायेगा। आपको चलने के लिए इसलिए कह रहा हूँ कि जब रोगी चल नहीं सकता तो वैद्य को ही चलकर रोगी के पास जाना पड़ता है। अगर इनमें साधन का बल होता तो मैं आपको वहाँ जाने की बात नहीं कहता। चलना माने साधन की ओर बढ़ना, जो असमर्थ जीव हैं, जो साधन शून्य हैं, जो इतना भगोड़ा है कि भागते-भागते थक गया, अब तो आप ही कृपा कीजिए।
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