जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
0 |
महात्मा गाँधी की आत्मकथा
चाचाजी ने कहा: 'सो मैं कैसे दे सकता हूँ? लेकिन साहब सज्जन हैं, तू पत्र लिख। कुटुम्ब की परिचय देना। वे जरूर तुझे मिलने का समय देंगे, और उन्हें रुचेगा तो मदद भी करेंगे।'
मैं नहीं जानता कि चाचाजी ने साहब के नाम सिफारिश का पत्र क्यों नहीं दिया। मुझे धुंधली-सी याद हैं कि विलायत जाने के धर्म-विरुद्ध कार्य में इस तरह सीधी मदद करने में उन्हें संकोच हुआ।
मैंने लेली साहब को पत्र लिखा। उन्होंने अपने रहने के बंगले पर मुझे मिलने बुलाया। उस बंगले की सीढियों को चढ़ते वे मुझसे मिल गये, और मुझे यह कहकर चले गये : 'तू बी.ए. कर ले, फिर मुझ से मिलना। अभी कोई मदद नहीं दी जा सकेगी।' मैं बहुत तैयारी करके, कई वाक्य रटकर गया था। नीचे झुककर दोनों हाथो से मैंने सलाम किया था। पर मेरी सारी मेंहनत बेकार हूई!
मेरी दृष्टि पत्नी के गहनो पर गयी। बड़े भाई के प्रति मेरी अपार श्रद्धा थी। उनकी उदारता की सीमा न थी। उनका प्रेम पिता के समान था।
मैं पोरबन्दर से बिदा हुआ। राजकोट आकर सारी बातें उन्हें सुनाई। जोशीजी के साथ सलाह की। उन्होंने कर्ज लेकर भी मुझे भेजने की सिफारिश की। मैंने अपनी पत्नी के हिस्से के गहने बेच डालने का सुभाव रखा। उनसे 2-3 हजार रुपये से अधिक नहीं मिल सकते थे। भाई ने, जैसे भी बने, रुपयो का प्रबंध करने का बीड़ा उठाया।
माताजी कैसे समझती? उन्होंने सब तरफ की पूछताछ शुरू कर दी थी। कोई कहता, नौजवान विलायत जाकर बिगड़ जाते हैं ; कोई कहता, वे माँसाहार करने लगते हैं ; कोई कहता, वहाँ तो शराब के बिना तो चलता ही नहीँ। माताजी ने मुझे ये सारी बाते सुनायी। मैंने कहा, ' पर तू मेरा विश्वास नहीं करेगी? मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मैं इन तीनों चीजों से बचूँगा। अगर ऐसा खतरा होता तो जोशीजी क्यों जाने देते?'
|