जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
बड़े भाई को दूसरा विचार सूझा : 'पोरबन्दर राज्य पर हमारा हक हैं। लेली साहब एडमिनिस्ट्रेटर हैं। हमारे परिवार के बारे में उनका अच्छा ख्याल हैं। चाचाजी पर उनकी खास मेंहरबानी हैं। सम्भव हैं, वे राज्य की तरफ से तुझे थोड़ी बहुत मदद कर दे।'
मुझे यह सब अच्छा लगा। मैं पोरबन्दर जाने के लिए तैयार हुआ। उन दिनों रेल नहीं थी। बैलगाड़ी का रास्ता था। पाँच दिन में पहुँचा जाता था। मैं कर चुका हूँ कि मैं खुद डरपोक था। पर इस बार मेरा डर भाग गया। विलायत जाने की इच्छा ने मुझे प्रभावित किया। मैंने धोराजी तक की बैलगाड़ी की। धोराजी से आगे, एक दिन पहले पहुँचने के विचार से, ऊँट किराये पर लिया। ऊँट की सवारी का भी मेरा यब पहला अनुभव था।
मैं पोरबन्दर पहुँचा। चाचाजी को साष्टांग प्रणाम किया। सारी बात सुनीयी। उन्होंने सोचकर दिया : 'मैं नहीं जानता कि विलायत जाने पर हम धर्म की रक्षा कर सकते हैं या नहीं। जो बाते सुनता हूँ उससे तो शक पैदा होता हैं। मैं जब बड़े बारिस्टरों से मिलता हूँ, तो उनकी रहन-सहन में और साहबों की रहन-सहन में कोई भेद नहीं पाता। खाने-पीने का कोई बंधन उन्हें नहीं ही होता। सिगरेट तो कभी उनके मुँह से छूटती नहीं। पोशाक देखो तो वह भी नंगी। यह सब हमारे कुटुम्ब को शोभा न देगा। पर मैं तेरे साहस में बाधा नहीं डालना चाहता। मैं तो कुछ दिनों बाद यात्रा पर जाने वाला हूँ। अब मुझे कुछ ही साल जीना हैं। मृत्यु के किनारे बैठा हुआ मैं तुझे विलायत जाने की -- समुंद्र पार करने की इजाजत कैसे दूँ? लेकिन में बाधक नहीं बनूँगा। सच्ची इजाजत को तेरी माँ की हैं। अगर वह इजाजत दे दे तो तू खुशी-खुशी से जाना। इतना कहना कि मैं तुझे रोकूँगा नहीँ। मेरा आशीर्वाद तो तुझे हैं ही। '
मैंने कहा :'इससे अधिक की आशा तो मैं आपसे रख नहीं सकता। अब तो मुझे अपनी माँ को राजी करना होगा। पर लेली साहब के नाम आप मुझे सिफारिशी पत्र तो देंगे न?'
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